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________________ गृहस्थ धर्म २८९ १५. असतीजन पोषणता-व्यभिचारवृत्ति के लिए वेश्याओं आदि को नियुक्त करना एवं व्यभिचारवृत्ति करवाकर उनके द्वारा धनोपार्जन करना । कुछ आचार्यों की दृष्टि में चूहों को मारने के लिए बिल्ली अथवा कुत्ते आदि क्रूरकर्मी प्राणियों को पालना भी इसी में सम्मिलित है। बौद्ध परम्परा में निषिद्ध व्यवसाय-भगवान् बुद्ध ने जीविकार्जन के साधनों की शुद्धता को आवश्यक माना है। अष्टांग साधनामार्ग में सम्यक् आजीव को साधना का एक आवश्यक अंग बताया गया है। बौद्धधर्म में भी गृहस्थ उपासकों के लिए कुछ व्यवसायों को अयोग्य माना गया है । भगवान् बुद्ध ने आजीविका के जिन साधनों को वर्ण्य कहा है, उनमें हिंसा, अहिंसा का विचार ही प्रमुख है। बौद्ध आचार-प्रणाली में भी निम्न हिंसक व्यापारों का गृहस्थ के लिए निषेध है । अंगुत्तर निकाय में भगवान बुद्ध कहते हैं भिक्षुओं, पांच व्यापार उपासक के लिए अकरणीय हैं । कौन से पांच १. सत्थणिज्जा ( शस्त्रों का व्यापार ), २. सत्तवणिज्जा (प्राणियों का व्यापार), ३. मंसवणिज्जा ( मांस का व्यापार ), ४. मज्जवणिज्जा ( मद्य (शराब) का व्यापार ), ५. विसवणिज्जा (विष का व्यापार)। इसके अतिरिक्त दीघनिकाय के लक्खणसुत्त में बुद्ध ने अन्य निम्न जीविकाओं को निन्दनीय माना है-१. तराजू एवं बटखरे की ठगी अर्थात् कम-ज्यादा तोलना, २. माप की ठगी, ३. रिश्वत, ४. वंचना, ५. कृतघ्नता, ६. साचियोग (कुटिलता), ७. छेदन, ८. वध, ९. बंधन, १०. डाका एवं लूटपाट की जीविका। ८. अनर्थ-दण्ड परित्याग . जीवन-व्यवहार में प्रमुखतया दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं -१. सार्थक और २. निरर्थक । सार्थक क्रियाएँ वे अनिवार्य क्रियाएँ हैं जिनका सम्पादित किया जाना व्यक्ति और समाज के हित में आवश्यक है। शेष अनावश्यक क्रियाएँ निरर्थक क्रियाएँ हैं। सार्थक सावद्य क्रियाओं का करना अर्थदण्ड है, जबकि निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियों का करना अनर्थदण्ड है। क्योंकि इसमें आत्मा को निष्प्रयोजन ही पापकर्म का भागी बनाया जाता है। फिर भी जगत् में ऐसे अज्ञानीजनों की कमी नहीं है जो बिना किसी प्रयोजन के हिंसा और असत्य सम्भाषण आदि दुष्प्रवृत्तियाँ करते हैं । अनर्थदण्ड के अनेक उदाहरण है-जैसे स्नान आदि कार्यों में जल का आवश्यकता से अधिक अपव्यय करना, आवश्यकता से अधिक वृक्ष की पत्तियों या फूलों को तोड़ना, कार्य की समाप्ति के बाद भी नल की टोटी, बिजली के पंखे अथवा बत्तियों को खुला छोड़ देना, भोजन में जूठा डालना अथवा सम्भाषण में आदतन अपशब्दों का प्रयोग करना, बीड़ी, सिगरेट आदि १. अंगुत्तरनिकाय, भाग २, पृ० ४०१ । २. दीघनिकाय लक्खणसुत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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