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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदशनों का तुलनात्मक अध्ययन किया है, लेकिन यह अर्थ समुचित नहीं है। मेरी दृष्टि में वन-कर्म का अर्थ वनों को काटकर आजीविकोपार्जन करने से है ।
३. शकट कर्म (साडो कम्म)-शकट अर्थात् बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय । कुछ विचारक मूल प्राकृत शब्द 'साडीकम्मे का अर्थ वस्तुओं को सड़ाकर बेचने का व्यवसाय भी करते हैं ।२ अर्थात् ऐसे व्यवसाय जिनमें वस्तुओं को सड़ाकर धनार्जन किया जाता है, जैसे शराब बनाना। मेरी दृष्टि में यह दूसरा अर्थ ही उचित है।
४. भाटक कर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने का व्यवसाय करना ।
५. स्फोटी कर्म-खान खोदना या पत्थर फोड़ने का व्यवसाय करना ।
६. दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दांतों का व्यवसाय करना। उपलक्षण से चमड़े और हड्डी का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित हो जाता है ।
७. लाक्षावाणिज्य-लाख का व्यापार करना ।
८. रस-वाणिज्य-मदिरा आदि मादक रसों का व्यापार । शाब्दिक दृष्टि से दूध, दही, घृत, मक्खन, तेल आदि का व्यवसाय भी इममें सम्मिलित होता है, लेकिन कुछ आचार्यों ने इन व्यवसायों को इसमें सम्मिलित नहीं किया है। कुछ आचार्यों की दृष्टि में मद्य, मांस, मधु आदि महाविगयों (अभक्ष्य) का व्यापार इसमें शामिल है ।
९. विष-वाणिज्य–विभिन्न प्रकार के विषों का व्यवसाय करना । उपलक्षण से हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यवसाय भी इसी में सम्मिलित है।
१०. केश-वाणिज्य सामान्य रूप से दास-दासी, भेड़-बकरी प्रभृति केश युक्त प्राणियों के क्रय-विक्रय का व्यवसाय करना केश वाणिज्य के अन्तर्गत माना जाता है । कुछ आचार्यों के मत में चमरी गाय, लोमड़ी आदि पशु-पक्षियों के बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यवसाय भी इसमें सम्मिलित है। दूसरे कुछ आचार्यगण ऊन, मोरपंख आदि के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित करते हैं ।
११. यन्त्रपीड़न कर्म ( जन्तपीलन कर्म )-यन्त्र, सांचे, घाणी, कोल्ह आदि का व्यवसाय । उपलक्षण से उन सभी अस्त्र शस्त्रों का व्यापार, जिससे प्राणियों की हिंसा की सम्भावना हो, इसमें समाहित है।
१२. निलांछन कर्म-बैल आदि को नपुंसक बनाने का व्यवसाय । १३. दावाग्नि दापन-जंगल में आग लगाना ।
१४. सरोवर-द्रह-तड़ाग शोषण-तालाब, झील, जलाशय आदि को सुखाना । ०१. योगशास्त्र, ३।१०२ ।
२. वही, ३।१०३ ।
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