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________________ पृहस्थ धर्म २८७ गिनी जाती हैं। जैसे गेहूँ एवं घी से बनी रोटी, पूड़ी, पराठे, आदि । उपभोग परिभोग व्रत के भोजनादि के अपेक्षा से ५ अतिचार हैं-(१) मर्यादा उपरान्त सचित्त (सजीव) वस्तु का आहार । (२) सचित्त-प्रतिवद्धाहार । ( ३ ) अपक्वाहार-कच्ची वनस्पति अथवा बिना पके हुए अन्नादि का आहार । (४) दुष्पक्वाहार-पूरी तरह न पकी हुई वस्तुएँ खाना। (५) तुच्छौषधि भक्षणता-ऐसे पदार्थों का भक्षण करना जो खाने योग्य नहीं हो अथवा जिनमें खाने योग्य भाग अत्यल्प और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक हो। निषिद्ध ब्यवसाय-उपभोग परिभोग के लिए धनार्जन आनश्यक है । यदि धनार्जन या व्यवसाय प्रणाली अशुद्ध है तो उपभोग-परिभोग की शुद्धता एवं सम्यक्ता भी दूषित हो जाती है, अतः जैन विचारकों ने न केवल आहार विहार की सम्यक्ता एवं संयम पर जोर दिया, वरन् आजीविका-उपार्जन की शुद्धि पर भी पर्याप्त जोर दिया है । आजीविकोपार्जन एवं उपभोग-परिभोग का सम्बन्ध अत्यन्त निकट का है। इस तथ्य को दृष्टि में रखकर जैन विचारकों ने उपभोग-परिभोग-व्रत का निरूपण दो प्रकार से किया है । एक भोजनसम्बन्धी और दूसरा व्यवसाय सन्बन्धी । आजीविका के निमित्त किये जानेवाले व्यवसायों में १५ प्रकार के व्यवसाय गृहस्थ साधक के लिए निषिद्ध हैं: अङ्गार कर्म-कोयले बनाने का व्यवसाय, यद्यपि उपासकदशांगसूत्र में अंगार कर्म में केवल कोयले का व्यवसाय ही वर्णित है, तथापि कुछ टीकाकार आचार्यों ने ईंट पकाने आदि के व्यवसाय को भी उसमें सम्लिलित किया है। कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में इसमें कुम्हार, सुनार, लोहार, हलवाई, भड़भूजा आदि के ऐसे समस्त व्यवसाय समाविष्ट हैं जिनमें अग्नि को प्रज्ज्वलित करके उसकी सहायता से आजीविकोपार्जन किया जाता है। लेकिन मेरी दृष्टि में सूत्रकार के आशय को अधिक दूरी तक खींचना समुचित नहीं है, क्योंकि उसी सूत्र में सकडालपुत्र नामक कुम्भकार को, जो कुम्हार के व्यवसाय से ही आजीविकोपार्जन करता था, १२ व्रतधारी में एक प्रमुख श्रावक कहा गया है । इसका अर्थ जंगलों में आग लगाकर उन्हें साफ करना भी हो सकता है, क्योंकि उस युग में जन-संख्या के विस्तार से नयी कृषि भूमि की आवश्यकता हुई होगी और लोग आग लगाकर वनों को साफ करके अपने लिए कृषि भूमि प्राप्त करते होंगे। २. वन कर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय-वृत्तिकार ने बीजपेषण अर्थात् चक्की चलाना आदि धन्धे भी इसी में सम्मिलित किये हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में बगीचे लगाकर फल-फूल अथवा शाक-सब्जी आदि के व्यवसाय को भी इसमें सम्मिलित १. उपासकदशांगसूत्र, १६४७ । ३. देखिए-उपासक अभयदेववृत्ति, १।४७। २. वही, ।१४७ । ४. योगशास्त्र, ३१०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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