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________________ २८२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन १. इत्वरपरिगृहीतागमन-इस पद के अर्थ के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है । यहाँ कुछ प्रमुख अर्थ दिये जा रहे हैं-(अ) अल्पसमय के लिए पत्नी के रूप में रखी गई रखैल स्त्री से समागम करना, (ब) वाग्दत्ता के साथ समागम करना, (स) अल्पवयस्का पत्नी के साथ समागम करना । इस प्रकार गृहस्थ के लिए रखैल, वाग्दत्ता अथवा अल्पवयस्का पत्नी के साथ मैथुन करने का निषेध किया गया है । २. अपरिगृहीतागमन-अपरिगृहीता अर्थात् वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है अर्थात् वेश्या । वेश्या के साथ समागम करना यह अपरिगृहीतागमन है । कुछ आचार्य अपरिगृहीत का अर्थ करते हैं किसी के द्वारा ग्रहण नहीं की गयी अर्थात् कुमारी। दूसरे कुछ आचार्य व्यक्ति की अपेक्षा से पर-स्त्री को भी उसके द्वारा परिगृहीत नहीं होने के कारण अपरिगृहीत मानकर इससे पर-स्त्रीगमन का अर्थ लेते हैं । अतः वेश्या, कुमारी अथवा पर-स्त्री से काम-सम्बन्ध रखना व्रती गृहस्थ के लिए निषिद्ध है । ३. अनंगक्रीड़ा-मैथुन के स्वाभाविक अंगों से काम वासना की पूर्ति न करके अप्राकृतिक अंगों जैसे हस्त, मुख, गुदादि, बाह्य उपकरणों जैसे चर्म आदि से वासना की पूर्ति करना अथवा समलिंगी से मैथुन या पशुओं के साथ मैथुन करना आदि । गृहस्थ साधक को वासनापूर्ति के ऐसे अप्राकृतिक कृत्यों से बचना चाहिए । ___४. परविवाहकरण-गृहस्थ जीवन में व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों का विवाह संस्कार करना होता है, लेकिन यदि गृहस्थ साधक स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह सम्बन्ध या नाते-रिश्ते करवाने की प्रवृत्ति में रुचि लेता रहे तो वह कार्य उसकी भोगाभिरुचि को प्रकट करेगा और मन की निराकुलता में बाधक होगा, अतः गृहस्थ साधक के लिए स्वसतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह-सम्बन्ध कराने का निषेध है। ५. कामभोग तीव्राभिलाषा-कामवासना के सेवन की तीव्र इच्छा रखना, अथवा कामवासना के उत्तेजन के लिए कामवर्धक औषधियों व मादक द्रव्यों का सेवन करना गृहस्थ के लिए निषिद्ध है। क्योंकि तीन कामासक्ति और तज्जनित मानसिक आकुलता विवेक को भ्रष्ट कर साधक को साधना पथ से च्युत कर देती है । बौद्ध आचार दर्शन भी जहाँ भिक्षु-भिक्षुणी के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का विधान करता है, वहाँ गृहस्थ साधक के लिए स्वपत्नी अथवा स्वपति तक ही सहवास को सीमित करने का विधान करता है । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं यदि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सके तो कम-से-कम पर-स्त्री का अतिक्रमण न करे ।' धम्मपद में पर-स्त्रीगमन के दोषों को १. सुत्तनिपात, २६।२१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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