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________________ गृहस्थ धर्म २८३ दिखाकर उससे विरत रहने का उपदेश है । भगवान् बुद्ध कहते हैं, "परस्त्री-गामी मनुष्य की चार गतियाँ हैं-१. अपुण्य का लाभ, २. सुखपूर्वक निश्चित निद्रा का अभाव, ३. लोक-निन्दा और ४. मृत्यूपरान्त नरकवास । अथवा दूसरे रूप में-१. अपुण्य-लाभ, २. पापयोनि को प्राप्ति (बुरीगति), ३. भय के कारण परस्पर अत्यल्परति और ४. राजा के द्वारा भारी दण्ड दिया जाना । अतः मनुष्य को परस्त्रीगमन नहीं करना चाहिए।"१ ५. परिग्रहपरिमाणवत __ श्रमण साधक के लिए तो सम्पूर्ण परिग्रह के परित्याग का विधान है, लेकिन गृहस्थ साधक के लिए सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग सम्भव नहीं। अतः गृहस्थ को परिग्रहासक्ति से वचने के लिए परिग्रह की सीमारेखा निश्चित करनी होती है । यही व्रती गृहस्थ का परिग्रहपरिमाणवत कहलाता है । परिग्रह जीवन निर्वाह का आवश्यक साधन है । लेकिन यह साधन यदि साध्य ही बन जावे तो साधना की सम्भावना ही नहीं रहती । जीवन में प्रगति किसी भी एक आदर्श की ओर हो सकती है लेकिन जब जीवन में विभिन्न आदर्शों की स्थापना एक साथ कर ली जाती है, तो निश्चय ही जीवन-पथ विकृत हो जाता है और साधक को किसी भी लक्ष्य पर पहुचाने में समर्थ नहीं रहता। भौतिक समृद्धि की उपलब्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों को एक साथ आदर्श नहीं बनाया जा सकता। उपासकदशांगसूत्र में व्रती गृहस्थ के परिग्रहपरिमाणवत को इच्छापरिमाण व्रत भी कहा गया है । आगम-ग्रन्थ में इस नामान्तरण के पीछे एक दृष्टि रही है । वास्तव में परिग्रह स्वतः में जड़ है, उसमें बाधा उपस्थित करने की सामर्थ्य नहीं। साधना की दृष्टि से परिग्रह की अपेक्षा भी परिग्रहासक्ति, परिग्रह-तृष्णा या परिग्रह-संग्रह की इच्छा ही अधिक बाधक है । क्योंकि वह साधक का अपना मनोभाव है। अतः सूत्रकार ने इसे परिग्रह-परिमाण व्रत कहने की अपेक्षा इच्छापरिमाणव्रत कहा । एक अल्प-परिग्रही व्यक्ति में भी यदि परिग्रह-इच्छा मौजूद है तो वह साधना में प्रगति नहीं कर सकता । साधना की दृष्टि से इच्छा का परिसीमन अति आवश्यक है। जैन नैतिकता इच्छा, तृष्णा या ममत्व के परिसीमन के प्रति अत्यधिक जागरूक है। इच्छा का सम्बन्ध बाह्म परिग्रह से ही है, अतः उसका परिसीमन भी आवश्यक है । जैन विचारणा में गृहस्थ साधक को नौ प्रकार के परिग्रह को मर्यादा निश्चित करनी होती है-(१) क्षेत्र-कृषि भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमि भाग, (२) वास्तु-मकान आदि अचल सम्पत्ति, (३) हिरण्य-चांदी अथवा चाँदी की मुद्राएँ, (४) स्वर्ण-स्वर्ण अथवा स्वर्ण मुद्राएँ, (५) द्विपद-दास दासी-नोकर, कर्मचारी इत्यादि, (६) चतुष्पद-पशुधन, (७) धनचल सम्पत्ति , (८) घान्य-अनाजादि, (९) कुप्य-घर गृहस्थी का अन्य सामान । १. धम्मपद, ३०९-३१० । २. उपासकदशांग, ११४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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