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गृहस्थ धर्म
२८१ ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम-राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, राजकीय आदेशों के विपरीत वस्तुओं का आयात-निर्यात करना तथा समुचित राजकीय कर का भुगतान नहीं करना । कुछ विचारकों की दृष्टि में विरुद्ध राज्यातिक्रम का अर्थ है परस्पर विरोधी राजाओं की राजकीय सीमा का उल्लंघन कर दूसरे की सीमा में जाना। मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य विरोधी राज्यों में जाकर गुप्तचर का काम करना है, क्योंकि यह भी एक प्रकार की चोरी है । दूसरे इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है निश्चित सीमातिक्रमण के द्वारा दूसरे राज्यों की भूमि हड़पने का प्रयास करना अथवा बिना दूसरे राजा की अनुमति के उसके राज्य में प्रवेश करना ।
४. कूटतुला-कूटमान-न्यूनाधिक मापतौल करना-मापतौल में बेईमानी करना भी एक प्रकार की चोरी है और गृहस्थ साधक को न्यूनाधिक मापतौल नहीं करते हुए प्रामाणिक मापतौल करना चाहिए।
५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार--वस्तुओं में मिलावट करना-अच्छी वस्तु बताकर बुरी वस्तु देना । गृहस्थ साधक के लिए अशुद्ध वस्तुएँ बेचना निषिद्ध माना गया है । व्यापार में इस प्रकार की अप्रामाणिकता नैतिक विकास की सबसे बड़ी बाधा है । ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत (स्वदारसन्तोष व्रत)
जैन साधना में जहाँ श्रमण साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धी काम क्रिया से पूर्णतया विरत हो जाता है, वहाँ गृहस्थ के लिए कम-से-कम इतना तो आवश्यक माना गया है कि यदि वह अपनी भोगलिप्सा का पूरी तरह त्याग न कर सके तो उसे स्वपत्नी तक सीमित रखे एवं सम्भोग की मर्यादा बांधे । स्वपत्नीसन्तोषव्रत का प्रतिज्ञासूत्र उपास कदसांग में इस प्रकार है, 'मैं स्वपत्नीसन्तोषव्रत ग्रहण करता हूं (-) नामक पत्नी के अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।'
इस व्रत की प्रतिज्ञा स्पष्ट ही है, लेकिन पूर्वोक्त अणुव्रतों की अपेक्षा इसमें विशिष्टता यह है कि जहाँ उन व्रतों को प्रतिज्ञा में करण और योग का उल्लेख किया गया है, वहाँ इस व्रत की प्रतिज्ञा में उनका उल्लेख नहीं है। टीकाकार दृष्टि में इसका कारण यह हो सकता है कि गृहस्थ जीवन में सन्तान आदि का विवाह कराना आवश्यक होता है। इसी प्रकार पशु-पालन करनेवाले गृहस्थ के लिए उनका भी परस्पर सम्बन्ध कराना आवश्यक हो जाता है, अतः इसमें दो करण और तीन योग न कहकर श्रावक को अपनी परिस्थिति एवं सामर्थ्य पर छोड़ दिया गया है। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि गृहस्थ साधक को एक करण और एक योग से अर्थात् अपनी काया से स्वपत्नी के अतिरिक्त शेष मैथुन का परित्याग करना होता है । स्वपत्नीसन्तोषव्रती को निम्न पाँच दोषों से बचने का विधान है१. उपासकदशांग ११४४ ।
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