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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
बिना दुर्भावना के किये जाते हैं तो भी वे व्रत के दोष हैं, लेकिन यदि दुर्भावनापूर्वक अहित बुद्धि से एवं स्वार्थ साधन के निमित्त किये जाते हैं तो वे अनाचार बन जाते हैं और ऐसा गृहस्थ साधना से पतित हो जाता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र ( ४॥२१ ) में दूसरे व्रत के निम्न पांच अतिचार हैं- १. मिथ्योपदेश, २. असत्य दोषारोपण, ३. कूटलेखक्रिया, ४. न्यास अपहार और ५. मंत्रभेद-गुप्त बात प्रकट करना। ३. आचार्य-अणुव्रत
गृहस्थ का तीसरा व्रत अचौर्याणुव्रत हैं। इसमें गृहस्थ साधक स्थूल चोरी से विरत होता है। वह प्रतिज्ञा करता है कि स्थूल चोरी का परित्याग करता हूँ, यावज्जीवन मन-वच-कर्म से न तो स्थूल चोरी करूँगा, न कराऊँगा । प्रतिक्रमणसूत्र में स्थूल चोरी के निम्न रूप कहे गये है-(१) खात खनना-सेंध लगाकर वस्तुएँ ले जाना, (२) गाँठ काटना-अर्थात् बिना पूछे किसी की गाँठ खोलकर वस्तुएँ निकाल लेना, वर्तमान युग में जेब काटने की क्रिया का समावेश इसी में है, (३) ताला तोड़कर या दूसरी चाभी लगा कर वस्तुएँ चुरा लेना, (४) अन्य दूसरे साधनों के द्वारा वस्तु के स्वामी की स्वीकृति बिना वस्तु का ग्रहण करना भी चोरी है।
स्थूल और सूक्ष्म चोरी का अन्तर इस प्रकार जाना जा सकता है, जैसे रास्ते चलते हुए कोई तिनका या कंकर उठा लेना अथवा घूमते हुए उद्यान में से कोई फूल तोड़ लेना आदि क्रियाएँ स्थूल दृष्टि से चोरी न होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टि से चोरी ही है । मुनि सुशीलकुमारजो कहते हैं कि जिस चोरी के कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालय में दण्डित होता है और जो चोरी लोक में चोरी के नाम से विख्यात है, वह स्थूल चोरी है । इस प्रकार गृहस्थ के लिए सामाजिक दृष्टि से या वैधानिक दृष्टि से चोरी समझी जाने वाली ऐसी बड़ी चोरी का परित्याग आवश्यक माना गया । जैन गृहस्थ के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि वह स्थूल चोरी से बचता रहे, वरन् यह भी आवश्यक है कि वह उन कृत्यों के प्रति भी सावधान रहे जो प्रकट में चोरी नहीं दीखते हुए भी चोरी के ही रूप हैं, अतः अस्तेयव्रत की सुरक्षा के निमित्त साधक को उन्हें भी छोड़ देना चाहिए । उपासकदशांगसूत्र में ऐसे अतिचार ५ बताये गये हैं
१. स्तेनाहृत-चोर के द्वारा चोरी की गयी वस्तु को खरीदना या अपने घर में रखना । चोरी का माल खरीदना चोरी करने के समान ही दूषित प्रवृत्ति है।
२. तस्करप्रयोग-व्यक्तियों को रखकर उनके द्वारा चोरी, ठगी आदि करवाना अथवा चोरों को चोरी करने में विभिन्न प्रकार से सहयोग देना ।
१. उपासकदशांग ११४३ ।
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