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________________ गृहस्थ धर्म २७९ उपासकदशांग सूत्र में महावीर ने सत्याणुव्रत के पाँच अतिचारों से बचते रहने का निर्देश किया है। गृहस्थ साधक इन दोषों को जानकर कदापि इनका आचरण न करे १. दूसरे पर झूठा आरोप लगाना अथवा बिना पूर्व - विचार के मिथ्या दोषारोपण करना --- जैसे 'तू चोर है' । जो दोषारोपण बिना विचार के सहसा किया जाता है, वह अतिचार की कोटि में आता है । लेकिन यदि साधक दुर्भावनापूर्वक दोषारोपण करता है तो ऐसा दोष अनाचार की कोटि में आता है । ऐसे धक का व्रत खण्डित हो जाता है, वह साधना से च्युत माना जाता है । हास्यादि में अविवेकपूर्वक किया गया दोषारोपण भी अनैतिक है । २. रहस्य प्रकट कर देना अथवा गोपनीयता भंग कर देना । आज भी राजकीय कर्मचारियों को गोपनीयता की शपथ दिलवाई जाती है और उसका भंग कर देना, अपराध है । जैनदर्शन भी किसी की गोपनीयता भंग करने को दोष मानता है । ऐसा करना विश्वासघात है । कुछ आचार्य गण मूल प्राकृत शब्द 'रहसा अब्भक्खाणे' का अर्थ 'किसी आधार को देखकर दोषारोपण करना' ऐसा मानते हैं, जैसे कुछ लोगों को एकान्त में बैठा देखकर उनपर षड्यन्त्र करने का आरोप लगाना । ३. स्ववार मन्त्रभेद - अपनी स्त्री को गुप्त बातों को प्रकट करना । अनेक ऐसी पारिवारिक घटनाएँ होती हैं जिनका प्रकटन उचित नहीं होता । ४. मृषोपदेश- - गलत मार्गदर्शन करना । इसके तीन रूप हैं - ( अ ) हम जिन तथ्यों के हिताहित या सत्यासत्य को नहीं जानते उनके सम्बन्ध में स्वतः के अनिश्चित होने पर भी दूसरे को सलाह देना । ( ब ) किसी बात की हानिप्रदता और असत्यता का ज्ञान होने पर भी दूसरे को उस ओर प्रवृत्त करना । ( स ) किसी बात के वस्तुतः मिथ्या और अकल्याणकर होने पर भी अज्ञानवश उसे सत्य एवं कल्याणकारी मानते हुए दूसरों को उसमें प्रवृत्त कराना । व्याख्याकारों की दृष्टि में तीसरा रूप दूसरे व्रत की दृष्टि से दोषपूर्ण नहीं हैं, उसमें मात्र ज्ञानाभाव है । जबकि दूसरा रूप साक्षात् बोखा है, अनाचार है, उससे तो सत्य व्रतही खण्डित हो जाता है । अतः मृयोपदेश का पहला रूप ही अतिचार हैं जिसके सम्बन्ध में साधक हो सजग रहना चाहिए । ५. कूटलेखकरण - झूठे दस्तावेज लिखना, झूठे लेख लिखना, नकली मुद्रा (मोहर) बनाना या जाली हस्ताक्षर करना । ऐसे कार्य यदि विवेकहीनता, असावधानी और २. उपासक दशांगवृत्ति, ११४२ । १. उपासकदशांग ११४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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