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________________ गृहस्थ धर्म २७५ होता है। इसी कारण इसका एक नाम 'स्थूल प्राणातिपातविरमण' भी है। उपासकदशांग सूत्र में अहिंसाणुव्रत का प्रतिज्ञा सूत्र इस प्रकार है "स्थूल प्राणातिपात का शेष समस्त जीवन के लिए मन, वचन, कर्म से त्याग करता हूं, न मैं स्वतः स्थूल प्राणातिपात करूंगा और न दूसरों से कराऊँगा।" प्रतिक्रमणसूत्र में यही प्रतिज्ञासूत्र अधिक स्पष्ट रूप में इस प्रकार है, "मैं किसी भी निरपराध-निर्दोष स्थूल त्रस प्राणी की जान-बूझकर संकल्प पूर्वक मन-वच-कर्म से न तो स्वयं हिंसा करूँगा और न कराऊँगा।" निष्कर्ष यह निकलता है कि गृहस्थ साधक को निरपराध त्रस प्राणी की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा से विरत होना होता है । इस प्रतिज्ञा के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के आधार पर हमें जैन गृहस्थ के अहिंसाणुव्रत के स्वरूप का यथार्थ बोध हो जाता है । १. जैनाचार दर्शन में गृहस्थ साधक के लिए स्थूल हिंसा का निषेध किया गया है। प्राणी दो प्रकार के हैं-एक स्थूल और दूसरे सूक्ष्म । सूक्ष्म प्राणी चक्षु आदि से जाने नहीं जा सकते हैं अतः गृहस्थ साधक को मात्र स्थूल प्राणियों की हिंसा से बचने का आदेश है । स्थूल शब्द का लाक्षणिक अर्थ हैं मोटे रूप से । जहाँ श्रमण साधक के लिए अहिंसा व्रत का परिपालन अत्यन्त चरम सीमा तक या सूक्ष्मता के साथ करना अनिवार्य है, वहाँ गृहस्थ साधक के लिए अहिंसा की मोटी-मोटी बातों के परिपालन का ही विधान है । कुछ आचार्यों ने स्थूल हिंसा को त्रस प्राणियों की हिंसा माना है । जैन तत्त्वज्ञान में प्राणियों का स्थावर और त्रस ऐसा द्विविध वर्गीकरण है । जिन प्राणियों में स्वेच्छानुसार गति करने का सामर्थ्य होती हैं वे 'त्रस' कहे जाते हैं और जो स्वेच्छानुसार गति करने में समर्थ नहीं हैं ऐसे प्राणी स्थावर कहे जाते हैं जैसे पृथ्वी, जल अग्नि, वायु और वनस्पति का शरीर धारण करने वाले । इन्हें एकेन्द्रिय जीव भी कहते हैं, क्योंकि इनमें मात्र स्पर्श नामक एक और प्रथम इन्द्रिय ही होती है । शेष रसना एवं स्पर्श ऐसी दो इंद्रियों वाले प्राणी जैसे लट आदि, रसना-स्पर्श एवं नासिका ऐसी तीन इन्द्रियों वाले प्राणी जैसे चीटी आदि, स्पर्श, रसना, नासिका एवं चक्षु ऐसी चार इंद्रियों वाले बर्र आदि और स्पर्श, रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण ऐसी पांच इन्द्रियोंवाले पश पक्षी एवं मनुष्यादि त्रस जीव है। गृहस्थ साधक इन त्रस जीवों की हिंसा का परित्याग करता है। जबकि श्रमण साधक त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा का परित्याग करता है, गृहस्थ साधक भोजन आदि के पकाने तथा आजीविका उपार्जन आदि कार्यों में एकेन्द्रिय स्थावर प्राणी हिंसा से बच नहीं सकता, अतः उसके लिए त्रस प्राणियों की हिंसा का परित्याग कर देना ही पर्याप्त समझा गया। १. उपासकदशांग, १-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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