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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि क्या गृहस्थ साधक के लिए स्थावर प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होने का कोई विधान नहीं है ? बात ऐसी नहीं है । हिंसा अशुभ है फिर वह स्थावर प्राणियों को हो अथवा त्रस प्राणियों की। और जो अशुभ है वह परित्याज्य है ही। गृहस्थ साधक के लिए स्थावर प्राणियों की हिंसा का जो निषेध नहीं किया गया है इसका कारण इतना ही है कि गृहस्थ अपने गृहस्थ जीवन में इससे पूर्णतया बच नहीं सकता। उसमें उसे जो छूट दी गई है उसका मात्र अभिप्राय यही है कि वह अपनी पारिवारिक जीवन-चर्या का निर्वाह कर सके । गृहस्थ साधक को भी अनावश्यक रूप में स्थावर प्राणियों की हिंसा करने का तो निषेध ही किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं-"अहिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति का अभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करे।'
जैनाचार दर्शन में गृहस्थ त्रस प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होने के लिए भी जो प्रतिज्ञा लेता है, वह सशर्त है। उसकी दो शर्ते हैं-प्रथम तो यह कि वह मात्र निरपराध त्रस प्राणियों की हिंसा का परित्याग करता है, सापराधी त्रस प्राणी की हिंसा का नहीं । दूसरे वह संकल्पपूर्वक त्रस हिंसा का प्रत्याख्यान करता है, बिना संकल्प के हो जाने वाली त्रस हिंसा का नहीं। सापराधी वह प्राणी हैं जो हमारे शरीर, परिवार, समाज अथवा हमारे आश्रित प्राणी का कोई अनिष्ट करना चाहता है अथवा करता है । अन्यायी एवं आक्रमणकारी व्यक्ति अपराधी है। गृहस्थ साधक ऐसे प्राणियों की हिंसा से विरत नहीं होता । अन्याय के प्रतिकार और आत्म-रक्षा के निमित्त यदि त्रस हिंसा अनिवार्य हो तो ऐसा कर गृहस्थ साधक अपने साधन पथ से विचलित नहीं होता। महाराजा चेटक और मगधाधिपति अजातशत्रु ( कुणिक ) के युद्ध प्रसंग को लेकर स्वयं महावीर ने अन्याय के प्रतिकार के निमित्त की गई हिंसा के आधार पर महाराज चेटक को आराधक माना, विराधक नहीं । अन्यायी और आक्रमणकारी के प्रति की गई हिंसा से गृहस्थ का अहिंसा व्रत खण्डित नहीं होता है, ऐसा जैन ग्रन्थों में विधान है । निशीथचूणि तो यहां तक कहती है कि ऐसी अवस्था में गृहस्थ का तो क्या, साधु का भी व्रत खण्डित नहीं होता है । इतना नहीं, अन्याय का प्रतिकार न करनेवाला साधक स्वयं दण्ड (प्रायश्चित) का भागी बनता है ।
वस्तुतः गृहस्थ साधक के लिए जिस हिंसा का निषेध किया गया है वह है“संकल्पयुक्त त्रस प्राणियों की हिंसा"। चाहे आजीविका उपार्जन का क्षेत्र हो, चाहे वह जीवन की सामान्य आवश्यकताओं के सम्पादन का क्षेत्र हो अथवा स्व एवं पर के रक्षण का क्षेत्र हो-संकल्पपूर्वक त्रस प्राणियों की हिंसा तो गृहस्थ साधक के लिए
१. योगशास्त्र, २।२१ ।
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