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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है । यहीं नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से 1 वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है । ये वैयक्तिक जीवन के लिए जितने उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं । जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेशद्वार हैं । साधक इनका योग्य रीति से आचरण के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है ।
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अणुव्रतसाधना
चारित्रिक या नैतिक साधना के मूल सिद्धान्त, जिन्हें जैन दर्शन 'व्रत', बौद्ध दर्शन 'शील' और योगदर्शन 'यम' कहता है, सभी साधकों के लिए चाहे वे गृहस्थ हों अथवा संन्यासी, समान रूप से आवश्यक हैं । ये साधना के सार्वभौमिक आधार हैं । देश, काल, व्यक्ति एवं परिवेश की सीमारेखा से परे हैं । हिंसा, मिथ्या भाषण, चोरी आदि पाप कर्म या दुष्कर्म हैं और वे पुण्य या कुशलकर्म नहीं कहला सकते । लेकिन साधनात्मक जीवन-पथ पर चलने की क्षमताएँ व्यक्ति व्यक्ति में भिन्न हो सकती है और ऐसी स्थिति में सभी के लिए साधना के समान नियम प्रस्तुत नहीं किये जा सकते । एक श्रमण या संन्यासी अहिंसादिका परिपालन जिस पूर्णता से कर सकता है, उसी पूर्णता से एक गृहस्थ साधक के लिए अहिंसादि का परिपालन सम्भव नहीं है । दशवेकालिकसूत्र में कहा गया है " अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य, स्थान और समय को ठीक तरह से परख कर ही अपने को किसी सद्कार्य में नियोजित करना चाहिए" अतः जैनधर्म में साधना पथ पर आरूढ़ होनेवाले साधक को स्पष्ट निर्देश है कि वह अपनी क्षमता को तौलकर ही साधना पथ में अग्रसर हो और साधना के नियमों को उतने ही अंश में स्वीकार करे जिनका परिणलन प्रामाणिकता पूर्वक कर सके । साधना के मार्ग में आत्मप्रवंचना ( धोखादेही) और नियम भंग स्वीकार नहीं किये जा सके । मनुष्य साधना के उन्हीं नियमों को स्वीकार करे जिनका आचरण यथोचित रूप में कर सके ।
जैनागमों में हमें कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं मिलता कि साधक को उसकी आन्तरिक अभिरुचि एवं इच्छा के विपरीत साधना के उच्चतम वर्ग में प्रविष्ट होने पर बल दिया गया हो । उपासकदशांगसूत्र में हम देखते हैं कि साधक आता है और उसे साधना की विभिन्न कक्षाओं के नियमोपनियमों से परिचित कराया जाता है और वह उनमें
१. दशवैकालिक ८ ३५
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