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गृहस्थ धर्म
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भरण-पोषण करना, उनके विकास में सहायक बनना । (२६) दीर्घदर्शी होना । किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना । (२७) विवेकशील होना । जिसमें हित-अहित कृत्य अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता है । ( २८ ) गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए । उपकारी के उपकार को विस्मरण कर देना उचित नहीं । (२९) अहंकार से aarर विनम्र होना । (३०) लज्जाशील होना । ( ३१ ) करुणाशील होना । (३२) सौम्य होना । ( ३३ ) यथाशक्ति परोपकार करना । ( ३४) काम, क्रोध मोह, मद और मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और (३५) इन्द्रियों को उच्छृंखल न होने देना । इन्द्रियविजेता गृहस्थ ही धर्म की आराधना करने की पात्रता प्राप्त करता I
आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २९ गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं' : -- ( १ ) अक्षुद्रपन ( विशाल हृदयता ), ( २ ) स्वस्थता, (३) सौम्यता, (४) लोकप्रियता, (५) अक्रूरता, (६) पापभीरुता, (७) अशठता, (८) सुदक्षता ( दानशील ), (९) लज्जाशीलता, (१०) दयालुता, (११) गुणानुराग, (१२) प्रियसम्भाषण या सौम्य - दृष्टि, (१३) माध्यस्थवृति (१४) दीर्घदृष्टि, (१५) सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, (१६) नम्रता, (१७) विशेषज्ञता, (१८) वृद्धानुगामी, (१९) कृतज्ञ, ( २० ) परहितकारी ( परोपकारी) और (२१) लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता ) 1
पं० आशाधरजी ने अपने ग्रंथ सागार धर्मामृत में निम्न गुणों का निर्देश किया है : - ( १ ) न्यायपूर्वक धन का अर्जन करनेवाला, (२) गुणीजनों को माननेवाला, (३) सत्यभाषी, (४) धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, (५) योग्य स्त्री, (६) योग्य स्थान ( मोहल्ला), (७) योग्य मकान 'युक्त, (८) लज्जाशील, ( ९ ) योग्य आहार, (१०) योग्य आचरण, (११) श्रेष्ठ पुरुषों की संगति, (१२) बुद्धिमान्, (१३) कृतज्ञ, (१४) जितेन्द्रिय, (१५) धर्मोपदेश श्रवण करने वाला, (१६) दयालु, (१७) पापों से डरने वाला - ऐसा व्यक्ति सागारधर्म (गृहस्थ धर्म ) का आचरण करें | पं० आशाधरजी ने जिन गुणों का निर्देश किया है उनमें से अधिकांश का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है ।
उपर्युक्त विवेचना से जो बात अधिक स्पष्ट होती है, वह यह है कि, जैन आचारदर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करके नहीं चलता । जैनाचार्यों ने
१. प्रवचनसारोद्धार, २३९
२. इसके अर्थ के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है ।
३. सागारधर्मामृत, अध्याय १
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