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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नुसारी गुणों का विवेचन किया है ' :-(१) न्यायनीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना । (२) समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्ट-जन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना । (३) समान कुल और आचार-विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना। (४) चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पापकर्मों का ऐहिक-पारलौकिक कटुक विपाक जानकर, पापाचार का त्याग करना । (५) अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना तथा संरक्षण करना । (६) दूसरों की निन्दा न करना । (७) ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला
और न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। (८) सदाचारी जनों की संगति करना । (९) माता-पिता का सन्मान-सत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना । (१०) जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो, जहाँ निराकुलता के साथ जीवन-यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना। (११) देश जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना, जैसे मदिरापान आदि । (१२) देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना । (१३) आय से अधिक व्यय न करना और अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना । (१४) धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना , जिज्ञासा से प्रेरित होकर शास्त्रचर्चा करना, विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करना और तत्त्वज्ञ बननाबुद्धि के इन आठ गुणों को प्राप्त करना । (१५) धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना । (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना, यह स्वास्थ्यरक्षा का मूल मन्त्र है। (१७) समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत हो अधिक न खाना । (१८) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता
और गृहस्थ काम पुरुषार्थ का भी सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। (१९) अतिथि, साधु और दीन जनों को यथायोग्य दान देना । (२०) आग्रहशील न होना । (२) सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना । (२२) अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन न करना । (२३) देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना । (२४) आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना । (२५) माता-पिता, पत्नी पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य
१. योगशास्त्र प्रथम प्रकाश ४७-५६ पृ० २०-२३
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