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________________ गृहस्थ धर्म चोरी की कुटेव भी गृहस्थ-धर्म का विनाश करती है। गृहस्थ-धर्म में सम्पत्ति का वैयक्तिक स्वामित्व का जो अधिकार है, चौर्य कर्म उसी अधिकार का मूलोच्छेद करता है। साथ ही वह लोक निन्दनीय और राज्य के द्वारा दण्डनीय अपराध भी है । सामाजिक शान्ति एवं व्यवस्था को भंग करता है, अतः उसे वर्ण्य माना गया है । (७) परस्त्रीगमन-यह विषयासक्ति वर्धक एवं सामाजिक व्यवस्था का विनाशक है । परस्त्री गमन का त्याग करने पर ही व्यक्ति गृहस्थ जीवन का अधिकारी बन सकता है । पांच औदुम्बर फलों और सप्त व्यसनों का त्याग अणुव्र त साधना की पूर्व तैयारी के रूप में माना जा सकता है । यह अहिंसा, अचौर्य और स्वपत्नी सन्तोष अणुव्रत की ही प्रारम्भिक रूपरेखा है। इनका पालन करने वाला साधक ही अणुव्रत की साधना के मार्ग में आगे बढ़ सकता है । पाँच औदुम्बर फलों और सप्त दुर्व्यसनों का त्याग अणुव्रत साधना की पूर्व तैयारी के रूप में माना जा सकता है। यह अहिंसा, अचौर्य और स्वपत्नीसन्तोष अणुव्रत की ही प्रारम्भिक रूपरेखा है। इनका पालन करने वाला साधक ही अणुव्रत की साधना के मार्ग में आगे बढ़ सकता है। गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति गृहस्थ-जीवन में कैसे जीना चाहिए, इस सम्बन्ध में थोड़ा निर्देश आवश्यक है । गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो इस सम्बन्ध में जैन आगमों में यत्रतत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथासाहित्य, उपदेश-साहित्य एवं आचार सम्बन्धी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूपरेखा प्रस्तुत की है। यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। हम अपने विवेचन को आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार और आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं० आशाधरजी के सागारधर्मामृत तक ही सीमित रतेंगे । सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता । धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है । व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहारपटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था। अतः अणुव्रत-साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें "मार्गानुसारी" गुण कहा है। धर्म-मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है । उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश में श्रावक-धर्म का विवेचन करने के पूर्व ही प्रथम प्रकाश में निम्न ३५ मार्गा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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