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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैन साधना में गृहस्थ-आचार के प्राथमिक नियम (मूलगुण)
श्रावक या गृहस्थ जीवन में प्रविष्टि के लिए निष्ठा या सम्यकदर्शन की तो आवश्यकता है ही। लेकिन मात्र निष्ठा एवं विचारशुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। अतः जैनाचार्यों ने गृहस्थ साधक के लिए आचार का एक सरलतम प्रारूप भी निर्धारित किया है जिसका पालन जैन गृहस्थ उपासक बनने के लिए अनिवार्य माना जाने लगा है, यद्यपि पूर्ववर्ती आगमों में इसका विवेचन उपलब्ध नहीं है। जैनाचार्यों में भी इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (६१) में मद्य, मांस, मधु तथा पंच औदुम्बर फलों के त्याग के रूप में श्रावक के अष्ट मूलगुणों का विधान किया है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार (६६) में पंच अणुव्रतों तथा मद्य, मांस और मधु के त्याग को श्रावक के अष्ट मूलगुण बताया है । आचार्य सोमदेव एवं अमृतचन्द्र ने पंच अणुव्रतों के स्थान पर पंच औदुम्बरफल के त्याग का विधान कर उसकी कठोरता को कम किया है। वसुनन्दि श्रावकाचार में सप्त व्यसनों के त्याग का विधान है। वर्तमान युग में वसुनन्दि के विधान को ही सामान्यतया स्वीकार किया जाता है । सम्यक्त्व ग्रहण के साथ ही पाँच औदुम्बर फलों एवं सप्त व्यसनों का त्याग कर जैन गृहस्थ साधक के लिए आवश्यक है। पंच औदुम्बर फल त्याग-(१) पीपल का फल (२) गुलर का फल (३) वट का फल (४) पिलखन का फल और (५) अन्जीर । जैन गृहस्थ के लिए इनका उपयोग वजित माना गया है, क्योंकि इन फलों के अन्दर सूक्ष्म कोड़े होते हैं। सप्तव्यसन त्याग-(१) जुआ एक निन्दित कर्म है । इसके कारण न केवल वैयक्तिक वरन् पारिवारिक जीवन भी संकट में पड़ जाता है, अतः जुआ गृहस्थ साधक के लिए वर्जनीय है । (२) मांसाहार-मांस-भक्षण निर्दयता को जन्म देता है । मांसाहारी साधक हिंसा से भी विरत नहीं हो सकता, अतः मांसाहार का त्याग अहिंसाणुव्रत के पालन की पूर्व भूमिका है। (३) सुरापानमद्यपान जैन गृहस्थ के लिए वर्जित है । जैनाचार्यों ने इसकी निन्दा में विस्तृत साहित्य का सर्जन किया है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जिस प्रकार अग्नि को एक चिनगारी से घास का ढेर राख हो जाता है उसी प्रकार मदिरापन से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य शौच, दया आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । वेश्यागमन-वेश्यागमन परिवार-संस्था का ही मूलोच्छेद करता है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन पर यह एक कलंक है । (५) शिकार-शिकार खेलना क्रूरता का प्रतीक है। अहिंसा की महान साधना में तत्पर होने की पूर्व भूमिका के रूप में इसका त्याग आवश्यक है । (६) चौर्य-कर्म
१. योगशास्त्र, ३।४२-४३
२. वसुनन्दि श्रावकाचार, ५९ ३. योगशास्त्र, ३।१६; पाश्चात्य आचार दर्शन में इसके अनौचित्य के लिए देखिए
एथिक्स फॉर टू डे, पृ० २४०-२४३
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