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गृहस्थ धर्म
देव, गुरु और धर्म का स्वरूप
१. देव - जैन आचार-दर्शन में देव का तात्पर्य अर्हत् या वीतराग अवस्था को प्राप्त पुरुष है । अर्हत् शब्द आध्यात्मिक पूर्णता का प्रतीक है। जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन आदि आत्मिक शक्तियों का पूर्ण प्रकटन कर लेता है, वह अर्हत् कहलाता है । वह वीतराग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह राग और द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठ चुका है । जैन साधना में वीतराग या अर्हत् का आदर्श एक व्यावहारिक आदर्श है, क्योंकि अर्हत् अवस्था की प्राप्ति के पूर्व वह भी एक सामान्य व्यक्ति होता है जो स्वयं के प्रयत्न, पुरुषार्थ और साधना से उस योग्यता को प्राप्त करता है । वह यही प्रेरणा देता है कि जिसे तुम आदर्श मानते हो वह तुम में ही प्रसुप्त है, प्रयत्न करो तुम स्वयं ही आदर्श बन जाओगे । अर्हत् का आदर्श न तो वैयक्तिकता का प्रतीक है, न किसी ईश्वरवाद का ही है, वरन् वह तो आध्यात्मिक पूर्णता है जिसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश भी पूर्णतया लुप्त है । आचार्य हेमचन्द्र कितने स्पष्ट शब्दों में साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त होकर इस आदर्श की वन्दना करता है।
भव - बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
संसार में आवागमन के कारणभूत रागादि जिसके क्षय हो गये हैं वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हरि हो या जिन हो— उसको मेरा नमस्कार है ।
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वस्तुतः साधना का लक्ष्य वीतरागता या समत्व की उपलब्धि है और जो इस समत्व से युक्त है, वीतराग है, वही साधना का आदर्श है ।
२. गुरु - साधना के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक नितान्त आवश्यक है । जैन विचारणा के अनुसार गुरु आचरण के क्षेत्र में दिशा-निर्देशक का कार्य करता है । गुरु या मार्ग दर्शक कौन हो सकता है ? इसके लिए कहा गया है कि जो पाँच इन्द्रियों का संवरण करनेवाला नव रक्षापंक्तियों से ब्रह्मचर्य के रक्षण में सदैव जागृत, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों से मुक्त; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच प्रकार के आचार का पालन करने वाला; गमन, भाषण, याचना, निक्षेपण, और विसर्जन इन पाँच समितियों को विवेकपूर्ण ढंग से सम्पादित करनेवाला तथा मन, वचन और काया से संयत होता है, वही गुरु है । ३. धर्म साधना के क्षेत्र में धर्म या साधना पथ का चुनाव करना होता है । धर्म के सम्बन्ध में जैन विचारकों की मान्यता यह है कि स्व-पर कल्याणकारक अहिंसा ही धर्म है ( धम्मो दया विसुद्धो ) । दशवैकालिक सूत्र के अनुसार अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है |
१. सामायिक सम्यक्त्वसूत्र
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२. दशवैकालिक ११
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