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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवशनों का तुलनात्मक अध्ययन
वीतराग अवस्था को, साधना मार्ग के पथ-प्रदर्शक के रूप से अर्न्तबाह्य ग्रन्थियों से मुक्त पंच महाव्रतधारी गुरु को और साधना मार्ग के रूप में वीतराग द्वारा प्रतिपादित अहिंसा धर्म को अंगीकार करते हैं, वे सभी गृहस्थ उपासक बन सकते हैं । यह प्रक्रिया जैन - परम्परा में देव, गुरु और धर्म की श्रद्धा के रूप में सम्यक्त्व ग्रहण के नाम से जानी जाती है । इसमें साधक इस निश्चय को अभिव्यक्त करता है कि "जीवनपर्यन्त अर्हत् मेरे देव हैं, निर्ग्रन्थ श्रमण मेरे गुरु हैं और वीतरागप्रणीत धर्म मेरा धर्म है" ।" यह प्रक्रिया सम्यक्त्व - ग्रहण या त्रिनिश्चय कही जाती हैं ।
शरण ग्रहण आवश्यक है शरण ग्रहण के
करने की परम्परा वह अभिस्वीकृति
अनुसार
साथ ही साधना
सम्यक्त्व ग्रहण पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार - बौद्ध परम्परा और गीता में भी श्रद्धा सावना मार्ग में प्रविष्टि के लिए आवश्यक है। बौद्ध परम्परा में यह प्रक्रिया त्रिशरण ग्रहण कही जाती है । जिसमें व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की शरण को अंगीकार करता है । त्रिशरण ग्रहण की प्रक्रिया जैन परम्परा के त्रिनिश्चय की प्रक्रिया से थोड़ी भिन्न है । प्रथमत उसमें संघ के स्थान पर गुरु का स्थान है । दूसरे उसमें समर्पण नहीं, वरन् स्वीकृति है । वह प्रपत्ति या शरणागति के स्थान पर आत्म-निश्चय है । जैन दर्शन में अरहंत, सिद्ध, साधु एवं धर्म की तो है, लेकिन साधना के क्षेत्र में प्रविष्टि के लिए जो ( निश्चय ) है । बौद्ध परम्परा एवं गीता के पथ में प्रवेश माना जाता है । यद्यपि वर्तमान युग में सम्यक्त्व ग्रहण की यह प्रक्रिया साम्प्रदायिक मान्यताओं की आग्रहवृत्ति के रूप में रूढ़ हो गयी है, तथापि मूलतः इसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का अभाव है । यह तो वस्तुतः साधना - आदर्श, साधना के पथप्रदर्शक और साधना मार्ग का चयन है, जिसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश अनुपस्थित है । दूसरे, साधना के आदर्श, पथ-प्रदर्शक और मार्ग का स्वरूप भी ऐसा है जिसमें साम्प्रदायक अभिनिवेश की गन्ध भी नहीं आती है । देव और गुरु वैयक्तिकता के नहीं, वरन् आध्यात्मिक पूर्णताओं और योग्यताओं के परिचायक हैं । धर्म परम्परागत रूढ़ि नहीं, वरन् समत्ववृत्ति पर अधिष्ठित अहिंसा का विचार है । साधना के प्रारम्भ में इन त्रिनिश्चयों का ग्रहण इसलिए आवश्यक है कि आचरण या साधना के क्षेत्र में साधक कहीं भटक न जावे । जिस पथिक को अपने गन्तव्य और गन्तव्य मार्ग का परिज्ञान न हो, जिसके साथ कोई योग्य मार्गदर्शक न हो, वह क्या निर्विघ्न यात्रा कर पायेगा ? इसी प्रकार जिस साधक को अपने साधना - आदर्श का बोध न हो, जो साधना के सम्यक् पथ से अनभिज्ञ हो और जिसके साथ कोई योग्य पथ-प्रदर्शक न हो वह कैसे साधना कर पावेगा ? जैन विचारकों ने इसी तथ्य को सामने रखकर गृहस्थ साधक के द्वारा सम्यक् आचरणा की दिशा में आगे बढ़ने के लिए पूर्व में ही जीवन के आदर्श के रूप में देव, साधना-पथ के रूप में धर्म और मार्गदर्शक के रूप में गुरु का चयन आवश्यक माना ।
१. सामायिक, सम्यक्त्वसूत्र ।
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