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गृहस्थ धर्म
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आगे बढ़ कर वासनाओं पर नियंत्रण करते हैं । अहिंसा आदि अणुव्रतों का पालन करने वाला उपासक ही देशव्रती सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इस वर्ग में चारित्रिक क्षमता के आधार पर अनेक उपवर्ग हो सकते हैं । इस वर्ग में नैतिक श्रद्धा नैतिक आचरण का रूप ले लेती है | आनन्द आदि गृहस्थ उपासक इसी वर्ग में आते हैं । गृहस्थ उपासकों के तीन भेद
पं० आशाधरजी ने अपने ग्रन्थ सागार- धर्मामृत में गृहस्थ उपासकों के तीन भेद किये हैं: - ( १ ) पाक्षिक (२) नैष्ठिक (३) साधक । ।
१. पाक्षिक - जो व्यक्ति वीतराग को देव के रूप में, निग्रंथ मुनि को गुरु के रूप और अहिंसा को धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं वे पाक्षिक गृहस्थ उपासक कहे जाते हैं । देव, गुरु, धर्म अथवा साधना के आदर्श साधना के पथ प्रदर्शक और साधना मार्ग की अभिस्वीकृति यह पक्ष है । इसको ग्रहण करने वाला साधक पाक्षिक कहलाता है ।
२. नैष्ठिक - नैष्ठिक उपासक वे हैं जो सात दुर्व्यसनों एवं औदुम्बर फलों के भक्षण का त्याग करते हैं । सप्त दुर्व्यसन एवं औदुम्बरफलों का त्याग यह इस वर्ग की निम्नतम सीमा है । इसके अतिरिक्त १२ व्रतों एवं ११ प्रतिमाओं का पालन करने वाले तथा श्रावक के आवश्यक गुणों से युक्त रहने वाले गृहस्थ उपासक भी इसी वर्ग में आते हैं जो इस वर्ग की अपर सीमा है ।
३. साधक- -जो गृहस्थ उपासक श्रावक के १२ व्रतों एवं ११ प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में संलेखना व्रत को अंगीकार कर लेता है अर्थात् आहार आदि का सर्वथा त्याग कर देता है, १८ पापस्थानों से पूर्णतः निवृत्त हो जाता है एवं चित्त की वृत्तियों को अन्तर्मुखी कर आत्माभाव में रमण करता है वह सावक श्रावक कहा जाता है ।
पं० आशाधरजी के द्वारा किया हुआ यह त्रिविध वर्गीकरण अपनी मूल भावनाओं में अविरत सम्यकदृष्टि और देशविरत सम्यक्दृष्टि से भिन्न नहीं है । वस्तुतः पाक्षिक श्रावक अविरत सम्यक दृष्टि का और नैष्ठिक श्रावक देशविरत सम्यक् दृष्टि का ही नाम है । गुणस्थान - सिद्धान्त के अनुसार साधक जब पाँचवें गुणस्थान से है, तो वह गृहस्थ की सीमा से ऊपर उठ जाता है, चाहे वह द्रव्यलिंग को दृष्टि से गृहस्थ वेश में ही क्यों न हो । साधक श्रावक भी दृष्टि से गृहस्थ कहा जाता है। वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टि से होता है ।
ऊपर उठता ( वेशभूषा )
मात्र द्रव्यलिंग की वह उससे ऊपर
गृहस्थ धर्म में प्रविष्टि या सम्यक्त्व ग्रहण
जैन धर्म में गृहस्थ जीवन में रहकर साधना की प्रविष्टि का मार्ग सभी जाति, वय एवं वर्ग के लोगों के लिए खुला है । जो मनुष्य साधक- जीवन के आदर्श के रूप में
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