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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
गृहस्थ धर्म की विवेचन शैली
जैन - परम्परा में श्रावक-धर्म या उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन विभिन्न शैलियों में हुआ है । उपासकदशांग, तत्त्वार्थसुत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रद्धा ( सम्यक्त्व ) ग्रहण, व्रतग्रहण और समाधि मरण ( मरणांतिक अनशन ) के रूप में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है । दशाश्रुतस्कन्ध, आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र प्राभृत, कार्तिकेय अनुप्रेक्षा तथा वसुनन्दि श्रावकाचार में दर्शन - प्रतिमादि ११ प्रतिमाओं के रूप में क्रमशः श्रावक-धर्म का प्रतिपादन है एवं श्रावक-धर्म की उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाओं को दिखाया गया हैं | पं० आशाधरजी ने सागरधर्मामृत में पक्ष, चर्या ( निष्ठा ) और साधन के रूप में श्रावक-धर्म का विवेचन किया है और उसकी विकासमान दिशाओं को सूचित किया है ।
वास्तविकता यह है कि इन विवेचन शैलियों में विभिन्नता होते हुए भी विषय - वस्तु समान ही है, अन्तर विवेचना के ढंग में है । वस्तुतः ये एक दूसरे की पूरक हैं । प्रस्तुत प्रयास गृहस्थ साधकों के प्रकारों को विवेचना में गुणस्थान - सिद्धान्त एवं पं० आशाधरजी की शैली का, गृहस्थ धर्म की विवेचना में आगमिक व्रत शैली का और गृहस्थ साधकों के नैतिक विकास की अवस्थाओं के चित्रण के रूप में प्रतिमाशैली का आश्रय लिया गया है । उपासकदशांगसूत्र में जिस प्रकार व्रत विवेचन और प्रतिमाओं की विवेचना को अलग-अलग रखा गया है, उसी प्रकार हमने भी उन्हें अलग-अलग रखा है । यद्यपि इस प्रकार के विवेचन-क्रम में कुछ बातों की पुनरावृत्ति आवश्यक रूप हुई है
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गृहस्थ साधकों के दो प्रकार
सभी गृहस्थ उपासक साधना की दृष्टि से समान नहीं होते हैं, उनमें श्रेणी-भेद होता है । गुणस्थान - सिद्धान्त के आधार पर सामान्य रूप से गृहस्थ उपासकों को निम्न दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है ।
१. अविरत ( अवती ) सम्यग्दृष्टि - अविरत सम्यग्दृष्टि उपासक वे हैं, जो सम्यज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के साधना मार्ग में पूर्ण निष्ठा रखते हुए भी अपने में आत्मानुशासन या संयम की कमी का अनुभव करते हुए सम्यक् चारित्र की साधना में आगे नहीं बढ़ते हैं । साधारण रूप में उनकी श्रद्धा और ज्ञान तो यथार्थ होता है, लेकिन आचरण सम्यक् नहीं होता । वासनाएँ बुरी हैं यह जानते और मानते हुए भी वे अपनी वासनाओं पर अंकुश रखने में असमर्थता अनुभव करते हैं । जैन साहित्य में मगधाधिपति श्रेणिक को इसी वर्ग का उपासक माना गया है । इस वर्ग में नैतिक जीवन के प्रति श्रद्धा तो होती है, लेकिन आचरण में अपेक्षित नैतिकता नहीं आ पाती है । २. देशविरत ( देशव्रती ) सम्यग्दृष्टि – देश विरत सम्यग्दृष्टि के वर्ग उपासक जाते हैं, जो यथार्थ श्रद्धा के साथ-साथ यथाशक्ति सम्यक् आचरण के मार्ग में
वे गृहस्थ
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