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________________ गृहस्थ धर्म २६३ साधना की विभाजक रेखा बनाता है । गृहस्थ साधक भी मानसिक दृष्टि से प्रशस्त भावनावाला हो सकता है, लेकिन अपनी परिस्थितियों के वश उनका क्रियात्मक रूप में पालन नहीं करपाता है या उनका आंशिक रूप में पालन करता है। यहीं उसका श्रमण-साधक से अन्तर है। गृहस्थ और श्रमण दोनों ही अहिंसा के विचार में पूर्ण निष्ठा रखते हुए भी गृहस्थ साधक सुरक्षात्मक और औद्योगिक हिंसा के कुछ रूपों से बच नहीं पाता है, जबकि श्रमण-साधक उसका पूर्णरूपेण परिपालन करता है। कषायों का जय, अप्रशस्त मनोभाव (अप्रशस्त लेश्याओं) का परित्याग, प्रशस्त मनोभावों का ग्रहण, आर्त और रौद्र चित्त-वृत्ति का परित्याग आदि मानसिक या भावचारित्र की साधना में गृहस्थ और श्रमण समान ही है। इतना ही नहीं, षडावश्यक कर्म और मरणांतिक संलेखना (समाधिमरण) का विधान भी दोनों के लिए बहुत-कुछ समान ही है। गृहस्थ उपासक और श्रमण की साधना का महत्त्वपूर्ण अन्तर क्रमशः उनकी अणुव्रतों एवं महाव्रतों की साधना को लेकर है। उदाहरणार्थ श्रमण त्रस एवं स्थावर सभी की हिंसा का परित्याग करता है, जबकि गृहस्थ मात्र संकल्पयुक्त त्रस हिंसा का । श्रमण पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है जबकि गृहस्थ साधक स्वपत्नी-सन्तोष का व्रत लेता है । श्रमण समग्र परिग्रह का त्याग करता है जबकि गृहस्थ परिग्रह की सीमा निश्चित करता है । ___ गृहस्थ और श्रमण साधना का अन्तर उनके व्रतग्रहण की कोटियों के आधार पर भी किया जाता है। श्रमण सभी व्रत नवकोटि सहित ग्रहण करते हैं, जबकि गृहस्थ साधकों का व्रतग्रहण छ से दो कोटियों के मध्य उनकी सुविधा एवं क्षमता के अनुसार हो सकता है । जैन-विचारणा में व्रतग्रहण की ये कोटियाँ मानी गयी हैं :१. मनसाकृत २. मनसाकारित ३. मनसा-अनुमोदित । ४. वाक्कृत ५. वाक्कारित ६. वाक्-अनुमोदित । ७. कायकृत ८. कायकारित ९. काय-अनुमोदित । गृहस्थ साधक अनुमोदन की प्रक्रिया से नहीं बच पाता है, अतः उसका व्रतग्रहण दो से छह कोटियों के मध्य ही होता है। यद्यपि कुछ जैन सम्प्रदायों ने श्रावक के व्रत ग्रहण में आठ कोटियों की सम्भावना मानी है। गुजरात के स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में आठ कोटि और छः कोटि के प्रश्न को लेकर दो उपसम्प्रदायों का निर्माण हुआ है। संक्षेप में इस विवेचना का तात्पर्य यही है कि गृहस्थ और श्रमण को साधना के अन्तर का प्रमुख आधार आचार के बाह्य पक्ष तक ही अधिक सीमित है। साधना की मूलात्मा या साधना के आन्तरिक पक्ष की दृष्टि से दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । नैतिक आदर्शों को आचरण में क्रियान्वित कर पाने में ही गृहस्थ और श्रमण साधना में अन्तर माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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