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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
की पुष्टि की गयी है।' गीता के अनुसार मोक्ष के लिए कर्मयोग (ग हस्थ-धर्म) और कर्म-संन्यास दोनों ही निष्ठाएँ पूर्वकाल से प्रचलित हैं। गीताकार के अनुसार जिस साध्य की प्राप्ति एक संन्यासी करता है, उसी साध्य की प्राप्ति एक गृहस्थ कर्मयोगी भी करता है ।२ गीता के अनुसार गृहस्थ-धर्म अथवा संन्यास-धर्म दोनों में से किसी एक का निष्ठापूर्वक सम्यक् रूप से आचरण करनेवाला दोनों के ही फल को प्राप्त करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता में संन्यास-मार्ग और गृहस्थ-मार्ग दोनों का साधना के लक्ष्य की प्राप्ति की दृष्टि से समान महत्त्व है । इतना ही नहीं, गीताकार की दृष्टि में कर्म-संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अधिक महत्त्वपूर्ण रहा है, तभी तो वह कहता है कि कर्म-संन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारक है, फिर भी कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग अधिक महत्त्वपूर्ण है। गीता-शास्त्र के उपक्रम, उपसंहार, अपूर्वता आदि की दृष्टि से भी विचार करने पर ऐसा स्पष्ट लगता है कि यद्यपि गीताकार संन्यासमार्ग की अवहेलना नहीं करता, फिर भी उसका पूरा जोर गृहस्थ जीवन में रहकर अपने-अपने कर्तव्यों का परिपालन करते हुए सिद्धि प्राप्त करने की ओर है । जिस प्रसंग में गीता का उपदेश दिया गया, वह इसी बात को स्पष्ट रूप से बताता है कि गीता के उपदेष्टा की दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का सम्यक् रीति से परिपालन करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह अर्जुन को संन्यासमार्ग की अपेक्षा कर्ममार्ग में नियोजित करना चाहता है ।
निष्कर्ष यह है कि यद्यपि तीनों ही आचार-दर्शन गृहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्म दोनों के द्वारा हो सिद्धि या निर्वाण की प्राप्ति को सम्भव मानते हैं, तथापि जहाँ जैन और बौद्ध परम्पराओं का बल संन्यास-मार्ग पर अधिक है, वहाँ गीता कर्मयोग द्वारा गृहस्थ जीवन में रहकर ही साधना करने पर जोर देती है । श्रमण और गृहस्थ साधना में अन्तर ___ साधना के पूर्ण आदर्श के प्रति सतत निष्ठा गृहस्थ और संन्यासी दोनों से ही समान रूप में अपेक्षित है। सम्यक् दर्शन की दृष्टि से गृहस्थ और श्रमण की साधना में कोई मौलिक अन्तर नहीं है । जहाँ तक सम्यग्ज्ञान की साधना का प्रश्न है, साधकों में ज्ञानात्मक योग्यता का अन्तर हो सकता है, लेकिन यह ज्ञानात्मक योग्यता का अन्तर गृहस्थ और श्रमण-साधना के वर्गीकरण का आधार नहीं है । ज्ञान की मात्रा की कमी या अधिकता के आधार पर श्रमण और श्रावक साधक में विभेद नहीं किया गया है । गृहस्थ और श्रमण साधक के विभेद का प्रमुख आधार सम्यक्चारित्र है, सम्यक्चारित्र के भी भावचारित्र और द्रव्यचारित्र ऐसे दो भेद हैं। यह द्रव्यचारित्र ही गृही-साधना और श्रमण
१. गीता ३।२० । ३. वही, ५।४।
२. वही, ४।५। ४. वही, ५।२।
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