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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
__ इस प्रकार जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा में गृहस्थधर्म को भी मोक्ष प्रदाता माना गया है । श्रमण और गृहस्थ दोनों धर्म उसी लक्ष्य की ओर ले जानेवाले हैं । इतना ही नहीं, दोनों ही स्वतन्त्र रूप से उस परमलक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ भी माने गये हैं। बौद्ध आचारदर्शन में गृहस्थ जीवन का स्थान
जैनदर्शन और बौद्ध दर्शन दोनों इस बात में एकमत हैं कि साधनात्मक जीवन की दुष्टि से गृहस्थ साधक का स्थान श्रमण-साधक की अपेक्षा निम्न है । यह तो सम्भव है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से कितने ही गृहस्थ साधक भी कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा साधना के उच्च स्तर पर स्थित हों, लेकिन जहाँ श्रमण-संस्था और गृही-जीवन के मध्य सार्वभौम दृष्टि से तुलना करने का प्रश्न है, निस्सन्देह श्रमण-संस्था गृहस्थ-जीवन से श्रेष्ठ है । श्रमण साधक को श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए बुद्ध कहते हैं-"निरहंकार, सुव्रतधारी, एकांतवासी प्रव्रजित मुनि और दारपोषी (पत्नी आदि का भरणपोषण करने वाले) गृहस्थ में कोई समानता नहीं है। असंयमी गृहस्थ दूसरे जीवों का वध करता है, मुनि नित्य दूसरे प्राणियों की रक्षा करता है। जैसे आकाशगामी नीलग्रीव मयूर कभी भी वेग में हंस की समानता नहीं करता, इसी प्रकार गृहस्थ, अकेले वन में ध्यान करनेवाले भिक्षु की समानता नहीं कर सकता।' बुद्ध और महावीर दोनों यह मानते हैं कि “गृहवास बाधाओं से पूर्ण और प्रवज्या खुली जगह है' यद्यपि दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि गृहस्थ साधक भी सम्यक्दृष्टि और सदाचरण से सम्पन्न होने पर साधना-पथ में इस स्थिति को पहुँच जाता है कि वह अधिक जन्म ग्रहण नहीं करता है, इस शरीर का त्याग करने पर स्वर्ग लाभ करता है और भावी जन्म में श्रमण धर्म को स्वीकार कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ साधक सीधा निवाण लाभ कर सकता है या नहीं इस सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में दोनों प्रकार के वचन उपलब्ध होते हैं।
दिगम्बर परम्परा और स्थविरवाद इस सम्बन्ध में भी एक मत है कि गृहस्थ-साधक श्रामण्य अंगीकार किये बिना मुक्ति या निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता है, वह मात्र स्वर्गगामी हो सकता है । इस दृष्टिकोण की पुष्टि मज्झिमनिकाय के निम्न सूत्र से होती है:
हे गौतम, क्या कोई गृहस्थ है, जो गृहस्थ संयोजनों को बिना छोड़े, काया को छोड़, दुःख का अन्त करनेवाला हो ? नहीं वत्स ! ऐसा कोई गृहस्थ नहीं।
हे गौतम क्या कोई गृहस्थ है, जो गहस्थ के संयोजनों को बिना छोड़े काया को छोड़ने पर स्वर्ग को प्राप्त होनेवाला हो ? १. सुत्तनिपात, १२।१४-१५ । २. संयुत्तनिकाय, ५३।१।६, तुलनीय दशवै कालिक चूलिका, १।१२-१३ ।
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