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________________ २५ गृहस्थ धर्म जैनधर्म में गृहस्थ-साधना का स्थान यह तथ्य तो निर्विवाद है कि जैन-परम्परा में सामान्य श्रमण-साधना की अपेक्षा गृहस्थ जीवन में रह कर की जानेवाली साधना को निम्नस्तरीय माना गया है, तथापि वैयक्तिक दृष्टि से कुछ गृहस्थ साधकों को कुछ श्रमण साधकों की अपेक्षा साधनापथ में श्रेष्ठ माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र मे स्पष्ट निर्देश है कि 'कुछ गृहस्थ भी श्रमणों की अपेक्षा संयम (साधनामय जीवन) के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं।" साधनामय जीवन में गृही धर्म और भिक्षु धर्म में कौन श्रेष्ठ है, इसके सही मूल्यांकन का आधार तो यह है कि, इनमें से कौन साधनात्मक जीवन या नैतिक जीवन के आदर्श की उपलब्धि को करा पाने में समर्थ है। यदि नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए संन्यास-धर्म अनिवार्य है और उसके बिना नैतिक आदर्श की उपलब्धि सम्भव नहीं है, तो निश्चित ही संन्यास-धर्म को श्रेष्ठ मानना होगा। लेकिन यदि गहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्म दोनों से ही नैतिक आदर्श-परिनिर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति सम्भव है, तो फिर इस विवाद का अधिक मूल्य नहीं रह जाता है । क्या जैन नैतिक आदर्शनिर्वाण की प्राप्ति गृहस्थ जीवन में सम्भव है ? उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतया स्वीकार किया गया है कि 'गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है ।२ श्वेताम्बर कथा-साहित्य में भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी के द्वारा गृहस्थ जीवन से सीधे मोक्ष प्राप्त करने तथा भरत के द्वारा शृंगारभवन में ही कैवल्य (आध्यात्मिक पूर्णता) प्राप्त कर लेने की घटनाएं भी यही बताती हैं, कि गृहस्थ जीवन से भी साधना के अन्तिम आदर्श को उपलब्धि सम्भव है ।3 यद्यपि दिगम्बर परम्परा स्पष्ट रूप से गृहस्थ मुक्ति का निषेध करती है। श्वे० आगम उपासकदशांग में भी महावीर के दस प्रमुख श्रावकों को स्वर्गगामी ही बताया है । ___साधना की कोटि की दृष्टि से गृहस्थ-उपासक की भूमिका विरताविरत की मानी गई है। उसमें आंशिक रूप से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों है। लेकिन जैन साधना मे आंशिक निवृत्तिमय प्रवृत्ति का यह जीवन भी सम्यक् है और मोक्ष की ओर ले जाने वाला माना गया है । सूत्रकृतांग में कहा है कि सभी पापाचरणों से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरति अविरति है, परन्तु यह आरम्भ-नोआरम्भ (अल्प-आरम्भ) का स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त करनेवाला मोक्षमार्ग है, यह जीवन भी एकान्त सम्यक् एवं साधु है ।। १. उत्तराध्ययन, ५।२० । ३. भरहेमरचरियं ४६१-४६४ २. वही, ३६।४९ । ४. सूत्रकृतांग, २।२।३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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