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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन 'आगार' शब्द गृह या आवास के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका लाक्षाणिक अर्थ हैपारिवारिक जीवन, अतः जिस धर्म का परिपालन पारिवारिक जीवन में रहकर किया जा सके, उसे सागार धर्म कहा जाता है ।' 'आगार' शब्द जैन-परम्परा में छूट, सुविधा या अपवाद के अर्थ में भी रूढ़ हो गया है। इसका अर्थ है-साधना का वह विशिष्ट स्वरूप जिसमें साधक को साधना की दृष्टि से विशेष सुविधाएँ उपलब्ध हों । जैन विचारणा में गृहस्थ-धर्म को देशविरति चारित्र और श्रमण-धर्म को सर्वविरति चारित्र अथवा विकलचारित्र तथा सकलचारित्र भी कहा गया है। जिस साधना में अहिंसादि व्रतों की साधना पूर्णरूपेण हो वह सर्वविरति या सकलचारित्र है। गृहस्थ पारिवारिक जीवन के कारण अहिंसा, सत्यादि व्रतों की पूर्ण साधना नहीं कर पाता है, अतः उसकी साधना को देशचारित्र, अंशचारित्र या विकलचारित्र कहते हैं। जैनागमों में केवल गृहस्थ साधक के लिए 'श्रावक' शब्द का प्रयोग हुआ है, जबकि बौद्धागमों में गृहस्थ और श्रमण दोनों प्रकार के साधकों के लिए 'श्रावक' शब्द का प्रयोग हुआ है । सामान्यतया बुद्ध-वचन का श्रवण करने वाला, उस पर श्रद्धा करने वाला साधक 'श्रावक' नाम से अभिहित होता था। प्रो० मोनियर विलियम्स के अनुसार बौद्ध धर्म में गृहस्थ साधक 'श्रावक' के नाम से अभिहित नहीं था, वह मात्र 'उपासक' (सेवक) था । गृहस्थ साधक सच्चे अर्थों में बुद्ध का अनुयायी भी नहीं था । यद्यपि उनकी यह धारणा मात्र आलोचक दृष्टि का अतिरेक है । जैन-परम्परा में श्रावक शब्द का प्राकृत रूप ‘सावय' है, जिसका एक अर्थ बालक या शिशु है, अर्थात् जो साधना के क्षेत्र में अभी बालक है, प्राथमिक अवस्था में है, वह श्रावक है। भाषा-शास्त्रीय विवेचना में 'श्रावक' शब्द के दो अर्थ मिलते हैं, पहले अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति 'श्रू' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'सुनना' अर्थात् शास्त्र या उपदेशों को श्रवण करने वाला वर्ग श्रावक कहा जाता है । दूसरे अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति श्रा-पाके धातु से बतायी जाती है, जिसके आधार पर इसका संस्कृत रूप श्रापक बनता है जिसका प्राकृत में सावय हो सकता है । (डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री का कथन है कि इस श्रापक शब्द की संस्कृत के 'श्रावक' शब्द के साथ कोई संगति नहीं बैठती है) । शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ होगा-जो भोजन पकाता है । गृहस्थ भोजन के पचन-पाचन आदि की क्रियाओं को करते हुए धर्म माधना करता है, अतः वह 'श्रापक' कहा जाता है ।
जैन परम्परा में श्रावक शब्द में प्रयुक्त तीन अक्षरों की विवेचना इस प्रकार भी की जाती है । श्र-श्रद्धा, व-विवेक, क-क्रिया अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक विवेक युक्त आचरण करता है वह श्रावक । १. देखिए, अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड २, पृ० १०६ । २. वही, पृ० १०४ । ३. देखिए-बुद्धिज्म इन इट्स कनेक्शन विथ ब्राह्मणिज्म एण्ड हिन्दूइज्म, पृ० ९० ।
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