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________________ १५ गृहस्थ धर्म जैन दृष्टि से साधनामय जीवन का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से होता है और पूर्णता पूर्ण चारित्र्य की शैलेषी अवस्था में होती है । साधनात्मक जीवन के दो पक्ष सम्यग्दर्शन और सम्यक-ज्ञान की दृष्टि से गृहस्थ एवं श्रमण साधक में कोई विशेष अन्तर नहीं है । जागतिक उपादानों की नश्वरता का और आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान, स्वस्वरूप और परस्वरूप की यथार्थ बोध एवं साधनात्मक जीवन के आदर्श देव, साधनात्मक जीवन के पथप्रदर्शक गुरु, और साधना-मार्ग धर्म पर निश्चल श्रद्धा, यह समस्त बातें तो गृहस्थ और श्रमण दोनों साधकों के लिए अनिवार्य हैं । यदि गृहस्थ और श्रमण में साधनात्मक जीवन सम्बन्धी कोई अन्तर है, तो वह चारित्र के परिपालन का है । सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की साधना तो दोनों को समान रूप में ही करनी होती है, यद्यपि वे अपनी वैयक्तिक क्षमता के आधार पर सम्यकचारित्र्य के परिपालन में भिन्नता रख सकते हैं । जैन साधना में धर्म के दो रूप जैन साधना में धर्म के दो रूप माने गये हैं, एक श्रुतधर्म (तत्त्वज्ञान) और दूसरा चारित्रधर्म (नैतिक आचार)।' श्रुतधर्म का अर्थ है जीवादि नव तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान और उनमें श्रद्धा, और चारित्रधर्म का अर्थ है संयम और तप । गृहस्थ और श्रमण साधक के जीवन में अन्तर का आधार है चारित्रधर्म, श्रुतधर्म की साधना तो दोनों समान रूप से करते हैं । गृहस्थ उपासक को श्रुतधर्म के रूप में जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । स्वाध्याय, ज्ञानार्जन एवं तत्त्व-चर्चा इसके प्रमुख अंग हैं। मूल आगमों में 'जीवाजीव का ज्ञाता' यह श्रावक का विशेषण है। जयंती जैसी श्राविका भगवान् महावीर से तत्त्वचर्चा करती थी। इसका अर्थ है कि जैन परम्परा में तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना श्रावक का कर्तव्य था। जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को जानकर उन पर श्रद्धा रखना यह गृहस्थ उपासक की श्रुत-धर्म की साधना है। इसका विस्तृत विवेचन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में हुआ है । स्थानांगसूत्र में दो प्रकार का चारित्र धर्म वर्णित है-एक अनगार धर्म और दूसरा सागार धर्म । जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनगार धर्म को श्रमण धर्म एवं मुनिधर्म और सागारधर्म को गृहस्थधर्म या उपासकधर्म के नामों से भी अभिहित किया जाता है । १. स्थानांग, २१ । । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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