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________________ सामाजिक धर्म एवं दायित्व २४७ स्थविर (वृद्ध-मुनि), रोगी (ग्लान), अध्ययनरत नवदीक्षित मुनि, कुल, संध और साधर्मी को सेवा परिचर्या के विशेष निर्देश दिये गये थे । ४. भिक्षुणी संघ का रक्षण-निशीथचूर्णि के अनुसार मुनिसंघ का एक अन्य दायित्व यह भी था कि वह असामाजिक एवं दुराचारी लोगों से भिक्षुणी संघ की रक्षा करें। ऐसे प्रसंगों पर यदि मुनि मर्यादा भंग करके भी कोई आचरण करना पड़ता तो वह क्षम्य माना जाता था। ५. संघ के आदेशों का परिपालन-प्रत्येक स्थिति में संघ (समाज) सर्वोपरि था । आचार्य जो संघ का नायक होता था, उसे भी संध के आदेश का पालन करना होता था। वैयक्तिक साधना की अपेक्षा भी संघ का हित प्रधान माना गया था। संध के हितों और आदेशों की अवमानना करने पर दण्ड देने की व्यवस्था थी । श्वेताम्बर साहित्य में यहाँ तक उल्लेख है कि पाटलीपुत्र वाचना के समय संघ के आदेश की अवमानना करने पर आचार्य भद्रबाहु को संघ से बहिष्कृत कर देने तक के निर्देश दे दिये थे। गृहस्थ वर्ग के सामाजिक दायित्व १. भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा-उपासक वर्ग का प्रथम सामाजिक दायित्व था आहार, औषधि आदि के द्वारा श्रमण संघ की सेवा करना । अपनी दैहिक आवश्यकताओं के सन्दर्भ में मुनिवर्ग पूर्णतया गृहस्थों पर अवलम्बित था अतः गृहस्थों का प्राथमिक कर्तव्य था कि वे उनकी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करें । अतिथि संविभाग को गृहस्थों का धर्म माना गया था। इस दृष्टि से उन्हें भिक्ष-भिक्षुणी संघ का 'माता-पिता' कहा गया था। यद्यपि साधु-साध्वियों के लिए भी यह स्पष्ट निर्देश था कि वे गृहस्थों पर भार स्वरूप न बने। २. परिवार की सेवा-गृहस्थ का दूसरा सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे वे संन्यास नहीं लेंगे। यह मातापिता के प्रति भक्ति भावना का सूचक ही है । यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है । जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला कि जहाँ बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो । जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्णरूप से कायम है । कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संध) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता है। १. निशीथचूर्णी २८९ २. उपासकदशांगसूत्र १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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