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जैन, बौद्ध और गीता के आचार वर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन गृहस्थ उपासक दोनों के ही सामाजिक दायित्वों की विस्तृत चर्चा है। सर्व प्रथम हम मुनि के सामाजिक दायित्वों की चर्चा करेंगे ।
जैन मुनि के सामाजिक दायित्व-यद्यपि मुनि का मूल लक्ष्य आत्म-साधना है फिर भी प्राचीन जैन आगमों में उसके लिए निम्न सामाजिक दायित्व निर्दिष्ट हैं:
१. नीति और धर्म का प्रकाशन-मुनि का सर्व प्रथम सामाजिक दायित्व यह है कि वह नगरों या ग्रामों में जाकर जनसाधारण को सन्मार्ग का उपदेश देंवे। आचारांग में स्पष्ट रूप से निर्देश है कि मुनि ग्राम एवं नगर की पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में जाकर धनी-निर्धन या ऊँच-नीच का भेद किये बिना सभी को धर्ममार्ग का उपदेश दें। इस प्रकार जन साधारण को नैतिक जीवन एवं सदाचार की ओर प्रवृत्त करना यह मुनि का प्रथम सामाजिक दायित्व है। वह समाज में नैतिकता एवं सदाचार का प्रहरी है। समाज अनैतिकता की ओर अग्रसर न हो यह देखना उसका दायित्व है। चूँकि मुनि भिक्षा आदि के रूप में जीवन निर्वाह के साधन समाज से उपलब्ध करता है, इसलिए समाज का प्रत्युपकार करना उसका कर्तव्य है।
२. धर्म को प्रभावना एवं संघ की प्रतिष्ठा की रक्षा-सामान्य रूप से संघ का और विशेष रूप से आचार्य, गणी एवं गच्छ नायक का यह अनिवार्य कर्तव्य है कि वे संघ की प्रतिष्ठा एवं गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखें। उन्हें इस बात का ध्यान रखना होता है कि संघ की प्रतिष्ठा का रक्षण हो, संघ का पराभव न हो, जैनधर्म के प्रति उपासक वर्ग की आस्था बनी रहे और उसके प्रति लोगों में अश्रद्धा का भाव उत्पन्न न हो। निशीथचूर्णी आदि में उल्लेख है कि संघ की प्रतिष्ठा के रक्षण निमित्त अपवाद मार्ग का भी सहारा लिया जा सकता है-उदाहरणार्थ मुनि के लिए मंत्र-तंत्र करना, चमत्कार बताना या तप-ऋद्धि का प्रदर्शन करना वर्जित है किन्तु संघहित और धर्म प्रभावना के लिए वह यह सब कर सकता है । इस प्रकार संघ का संरक्षण आवश्यक माना गया है क्योंकि वह साधना की आधार भूमि है ।
३. भिक्षु-भिणियों की सेवा एवं परिचर्या-जैन मुनि का तीसरा सामाजिक दायित्व संघ-सेवा है । महावीर एवं बुद्ध की यह विशेषता है कि उन्होंने सामूहिक साधना पद्धति का विकास किया और भिक्षु संघ एवं भिक्षुणी संघ जैसी सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया । जैनागमों में प्रत्येक भिक्षु और भिक्षुणी का यह अनिवार्य कर्तव्य माना गया है कि वे अन्य भिक्षुओं और भिक्षुणियों की सेवा एवं परिचर्या करें। यदि वे किसी ऐसे ग्राम या नगर में पहुँचते हैं कि जहाँ कोई रोगी या वृद्ध भिक्षु पहले से निवास कर रहा हो तो उनका प्रथम दायित्व होता है कि वे उसकी यथोचित परिचर्या करें और यह ध्यान रखें कि उनके कारण उसे असुविधा न हो । संघ व्यवस्था में आचार्य, उपाध्याय; १. आचारांग १।२।५ २. निशीथचूर्णी १७४३ ३. निशीथ १०।३७
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