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बौद्ध आचार-दर्शन में वैचारिक अनाग्रह
बौद्ध आचारदर्शन में मध्यम मार्ग की धारणा अनेकान्तवाद की विचारसरणी का ही एक रूप है । इसी मध्यम मार्ग से वैचारिक क्षेत्र में अनाग्रह की धारणा का विकास हुआ है । बौद्ध विचारकों ने भी सत्य को अनेक पहलुओं से युक्त देखा और यह माना कि सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना ही विद्वता है थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य का एक ही पहलू देखता है, वह मूर्ख है ।" पण्डित तो सत्य को सौ ( अनेक) पहलुओं से देखता है । वैचारिक आग्रह और विवाद का जन्म एकांगी दृष्टिकोण से होता है, एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं और विवाद में उलझते हैं ।
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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
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बौद्ध विचारधारा के अनुसार आग्रह, पक्ष या एकांगी दृष्टि राग के ही रूप हैं । जो इस प्रकार के दृष्टि-राग में रत होता है वह जगत् में कलह और विवाद का सृजन करता है और स्वयं भी आसक्ति के कारण बन्धन में पड़ा रहता है । इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टि, पक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है और न बन्धन में । बुद्ध के निम्न शब्द बड़े मर्मस्पर्शी हैं, "जो अपनी दृष्टि से दृढ़ाग्रही हो दूसरे को मूर्ख बताता है, दूसरे धर्म को मूर्ख और अशुद्ध बतानेवाला वह स्वयं कलह का आह्वान करता है | किसी धारणा पर स्थित हो, उसके द्वारा वह संसार में विवाद उत्पन्न करता है । जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता । मैं विवाद के दो फल बताता हूँ । एक, यह अपूर्ण या एकांगी होता है; दूसरे, वह विग्रह या अशान्ति का कारण होता है। निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझनेवाले यह भी देखकर विवाद न करें । साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियाँ हैं, पण्डित इन सब में नहीं पड़ता । दृष्टि और श्रुति को ग्रहण न करनेवाला, आसक्तिरहित वह क्या ग्रहण करे । (लोग) अपने धर्म को परिपूर्ण बताते हैं और दूसरे के धर्म को हीन बताते हैं । इस प्रकार भिन्न मत वाले ही विवाद करते हैं और अपनी धारणा को सत्य बताते हैं । यदि कोई दूसरे की अवज्ञा ( निन्दा ) से हीन हो जाय तो धर्मों में श्रेष्ठ नहीं होता । जो किसी वाद में आसक्त है, वह शुद्धि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह किसी दृष्टि को मानता है । विवेकी ब्राह्मण तृष्णा दृष्टि में नहीं पड़ता । वह तृष्णा - दृष्टि का अनुसरण नहीं करता । मुनि इस संसार में ग्रन्थियों को छोड़कर वादियों में पक्षपाती नहीं होता । अशान्तों में शान्त वह जिसे अन्य लोग ग्रहण करते हैं उसकी उपेक्षा करता है । वाद में अनासक्त, दृष्टियों से पूर्ण रूप से मुक्त वह धीर संसार में लिप्त नहीं होता । जो कुछ दृष्टि, श्रुति या विचार हैं, उन सब पर वह विजयी है । पूर्ण रूप से मुक्त, मार-त्यक्त
१. थेरगाथा, १।१०६. ३. सुत्तनिपात, ५०।१६-१७.
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२. उदान, ६।४.
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