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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह ओर अपरिग्रह २२७ वह संस्कार, उपरति तथा तृष्णा-रहित है ।" इतना ही नहीं, बुद्ध सदाचरण और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह-वृत्ति को अनुपयुक्त समझते हैं। उनकी दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है । यह तो मल्लविद्या है-राजभोजन से पुष्ट पहलवान की तरह (प्रतिवादो के लिए) ललकारने वाले वादी को उस जैसे वादी के पास भेजना चाहिए क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रहा। जो किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते हैं और अपने मत को ही सत्य बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहाँ कोई नहीं है. ।२ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन वैचारिक अनाग्रह पर जैन दर्शन के समान ही जोर देता है बुद्ध ने भी महावीर के समान ही दृष्टिराग को अनुपयुक्त माना है और बताया कि सत्य का सम्पूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ सारी दृष्टियाँ शून्य हो जाती हैं । यह भी एक विचित्र संयोग है कि महावीर के अन्तेवासी इन्द्रभूति के समान ही बुद्ध के अन्तेबासी आनन्द को भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् पद प्राप्त नहीं हो सका। सम्भवतः यहाँ भी यही मानना होगा कि शास्त्र के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, वही उसके अर्हत् होने में बाधा था। इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों के निष्कर्ष समान प्रतीत होते हैं। गीता में अनाग्रह वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का समुचित महत्त्व और स्थान है। गीता के अनुसार आग्रह को वृति आसुरी वृत्ति है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरो स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद से युक्त होकर किसी प्रकार भो पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हो संसार में प्रवृत्ति करते रहते हैं। इतना ही नहीं, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और धारणा सभी को विकृत कर देता है । गीता में आग्रहयुक्त तप को तामस तप और आग्रहयुक्त धारणा को तामस धारणा कहा है। आचार्य शंकर तो जैन परम्परा के समान वैचारिक आग्रह को मुक्ति में बाधक मानते हैं। विवेकचूडामणि में वे कहते हैं कि विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों को धारावाहिता, शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह सब भोग का ही कारण हो सकते हैं, मोक्ष का नहीं।" शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक महान् वन है। वह चित्तभ्रान्ति का ही कारण है। आचार्य विभिन्न मत-मतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते हैं । वे कहते हैं कि यदि परमतत्त्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है और यदि परमतत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक १. सुत्तनिपात, ५१।२, ३, १०, ११, १६-२०. २. वही, ४६।८-९. ३. गीता, १६-१०. ४. वही, १७।१९, १८१३५. ५ विवेकचूड़ामणि, ६०. ६. वही, ६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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