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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
है । आग्रह विचारों का बन्धन है और अनाग्रह वैचारिक मुक्ति । विचार में जब तक आग्रह है, तब तक पक्ष रहेगा । यदि पक्ष रहेगा, तो उसका प्रतिपक्ष भी होगा । पक्षप्रतिपक्ष, यही विचारों का संसार है, इसमें ही वैचारिक संघर्ष, साम्प्रदायिकता और वैचारिक मनोमालिन्य पनपते हैं । जैनाचार्यों ने कहा है कि वचन के जितने विकल्प हैं उतने ही नयवाद (दृष्टिकोण) हैं और जितने नयवाद, दृष्टिकोण या अभिव्यक्ति के ढंग हैं उतने ही मत-मतान्तर ( पर - समय ) हैं । व्यक्ति जब तक पर समय ( मत-मतान्तरों) में होता है तब तक स्व-समय ( पक्षातिक्रान्त विशुद्ध आत्मतत्त्व ) की प्राप्ति नहीं होती है । तात्पर्य यह है कि बिना आग्रह का परित्याग किये मुक्ति नहीं होती । मुक्ति पक्ष का आश्रय लेने में नहीं, वरन् पक्षातिक्रान्त अवस्था को प्राप्त करने में है । वस्तुतः जहाँ भी आग्रहबुद्धि होगी, विपक्ष में निहित सत्य का दर्शन सम्भव नहीं होगा और जो विपक्ष में निहित सत्य नहीं देखेगा वह सम्पूर्ण सत्य का दृष्टा नहीं होगा ।
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भगवान् महावीर ने बताया कि आग्रह ही सत्य का बाधक तत्त्व है । आग्रह राग है और जहाँ राग है वहाँ सम्पूर्ण सत्य का दर्शन संभव नहीं । सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान या केवलज्ञान केवल अनाग्रही को ही हो सकता है । भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य एवं अन्तेवासी गौतम के जीवन की घटना इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य है । गौतम को महावीर के जीवनकाल में कैवल्य की उपलब्धि नहीं हो सकी । गौतम के केवलज्ञान में आखिर कौन सा तथ्य बाधक बन रहा था ? महावीर ने स्वयं इसका समाधान दिया था । उन्होंने गौतम से कहा था, "गौतम ! तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है, रागात्मकता है, वही तेरे केवलज्ञान ( पूर्णज्ञान) का बाधक है । महावीर को स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में खड़े होकर नहीं किया जा सकता । सत्य तो सर्वत्र उपस्थित है केवल हमारी आग्रहयुक्त या मतांधदृष्टि उसे देख नहीं पाती है और यदि देखती है तो उसे अपने दृष्टिराग से दूषित करके ही । आग्रह या दृष्टिराग से वही सत्य असत्य बन जाता है । अनाग्रह या समदृष्टित्व से वही सत्य के रूप में प्रकट हो जाता है । अतः महावीर ने कहा, यदि सत्य को पाना है तो अनाग्रहों या मतावादों के घेरे से ऊपर उठो, दोषदर्शन की दृष्टि को छोड़कर सत्यान्वेषी बनो । सत्य कभी मेरा या पराया नहीं होता है । सत्य तो स्वयं भगवान् है ( सच्चं खलु भगवं ) । वह तो सर्वत्र है । दूसरों के सत्यों को झुठलाकर हम सत्य को नहीं पा सकते हैं । सत्य विवाद से नहीं, समन्वय से प्रकट होता है ।
सत्य का दर्शन केवल अनाग्रही को ही हो सकता है । जैन धर्म के अनुसार सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है । सत्य का साधक वीतराग और अनाग्रही होता है । जैन धर्म अपने अनेकान्त के सिद्धान्त के द्वारा एक अनाग्रही एवं समन्वयात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता है, ताकि वैचारिक असहिष्णुता को समाप्त किया जा सके ।
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