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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
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रही है, वे आनुपातिक दृष्टि से किसी भी अन्य समाज से कम नहीं है। यही उसकी अहिंसा की विधायक दृष्टि का प्रमाण है ।
हिंसा क अल्प-बहुत्व का विचार-हिंसा और अहिंसा का विचार हमारे सामने एक समस्या यह भी प्रस्तुत करता है कि किसी विशेष परिस्थिति में जब एक की रक्षा के लिए दूसरे की हिंसा अनिवार्य हो-अथवा दो अनिवार्य हिंसाओं में से एक का चयन आवश्यक हो, तो मनुष्य क्या करे ? इस प्रश्न को लेकर तेरापंथी जैन सम्प्रदाय का जैनों के दूसरे सम्प्रदायों से मतभेद है । उनका मानना है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को तटस्थ रहना चाहिए । दूसरे सम्प्रदाय ऐसी स्थिति में हिंसा के अल्प-बहुत्व का विचार करते हैं । मान लीजिए, एक आदमी प्यासा है, यदि उसे पानी नहीं पिलाया जाय तो उसका प्राणांत हो जायेगा; दूसरी ओर, उसे पानी पिलाने में पानी के जीवों (अपकायजोवों) की हिंसा होती है। इसी प्रकार, एक व्यक्ति के शरीर में कोड़े पड़ गये हैं, अब यदि डाक्टर उसे बचाता है तो कीड़ों की हिंसा होती है और कीड़ों को बचाता है तो आदमी की मृत्यु होती है । अथवा प्रसूति की अवस्था में माँ और शिशु में से किसी एक के जीवन की ही रक्षा की जा सकती हो तो ऐसी स्थितियों में क्या किया जाय ? अहिंसा का सिद्धान्त ऐसी स्थिति में क्या निर्देश करता है ?
पंडित सुखलालजी ने यह माना है कि वध्य जीवों का कद, उनकी संख्या तथा उनकी इन्द्रिय आदि के तारतम्य पर हिंसा के दोष का तारतम्य अवलम्बित नहीं है; किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता-मंदता, सज्ञानता-अज्ञानता या बलप्रयोग को न्यूनाधिकता पर अवलंबित है ।' यद्यपि हिंसा के दोष की तीव्रता या मंदता हिंसक की मानसिक वृत्ति पर निर्भर है, तथापि इस आधार पर इन प्रश्नों का ठीक समाधान नहीं मिलता। इन प्रश्नों के हल के लिए हमें हिंसा के अल्प-बहुत्व का कोई बाह्य आधार ढूँढना होगा।
जैन परम्परा में परम्परागत रूप से यह विचार स्वीकृत रहा है कि ऐसी स्थितियों में हमें प्राण-शक्तियों या इन्द्रियों की संख्या एवं आध्यात्मिक विकास के आधार पर ही हिंसा के अल्प-बहुत्व का निर्णय करना चाहिए । इस सारी विवक्षा में जीवों की संख्या को सदैव ही गौण माना गया है । महत्त्व जीवों की संख्या का नहीं, उनकी ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्षमता का है। सूत्रकृतांग में हस्तितापसों का वर्णन है, जो एक हाथी की हत्या करके उसके माँस से एक वर्ष तक निर्वाह करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि अनेक स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक त्रस जीव की हिंसा से निर्वाह कर लेना अल्प पाप है, लेकिन जैन विचारकों ने इस धारणा को अनुचित ही माना ।२
भगवतीसूत्र में स्पष्ट ही कहा गया है कि यद्यपि सभी जीवों में आत्माएँ समान १. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ६०. २. सूत्रकृतांग, २१६५३-५४.
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