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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
स्पष्ट बोल रहा है। इसमें अहिंसा का उद्देश्य मनुष्य का अपना कल्याण न होकर लोककल्याण ही स्पष्ट होता है। इतना ही नहीं, तीर्थंकर अरिष्टनेमि का विवाहप्रसंग तथा शान्तिनाथ के पूर्व-भव में कबूतर की रक्षा का प्रसंग, ऐसे अनेक प्रसंग जैन कथासाहित्य में हैं जिनमें अहिंसा का विधायक स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । जैन-संघों द्वारा संचालित औषधालय, गोशालाएँ पांजरापोल (पशु-रक्षा गृह) आदि संस्थाएँ भी इस बात के प्रमाण हैं कि जैन-विचारक अहिंसा के विधायक पक्ष को भूले नहीं है । पुण्य के नौ भेदों में अन्नदान, वस्त्रदान, स्थान (आश्रय) दान आदि इसी विधायक पक्ष की पुष्टि करते हैं । विधायक पक्ष का एक और प्रमाण जैन तीर्थंकरों की गृहस्थावस्था में मिलता है। सभी तीर्थंकर संन्यास लेने के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन स्वर्णमुद्राएँ याचकों को दान करते हैं।' इस प्रकार जैन धर्म अहिंसा के दोनों पक्ष स्वीकार करता है। बौद्ध एवं वैदिक परम्परा में अहिंसा का विधायक पक्ष
यह निस्सन्देह सत्य है कि बौद्ध और वैदिक परम्पराओं ने अहिंसा को अधिक विधायक स्वरूप प्रदान किया । साधना के साथ सेवा का समन्वय करने में भारतीय धर्मों में बौद्ध धर्म और विशेष रूप से उनकी महायान शाखा अग्रणी रही है। यद्यपि जैन धर्म में भी ग्लान, वृद्ध, रोगी, शैक्ष्य आदि की सेवा का निर्देश है, मात्र यही नहीं मुनियों की सेवा को गृहस्थ धर्म का अनिवार्य अंग मान लिया गया है फिर भी मानवता के लिए सेवा और करुणा का जो विस्फोट जैन धर्म में होना चाहिए था वह न हो सका । अहिंसा और अनासक्ति की जो सूक्ष्म व्याख्याएँ की गई, वे ही इस मार्ग में सबसे बाधक बन गई । असंयती की सेवा को और रागात्मक सेवा को अनैतिक माना गया । यही कारण था कि जहाँ हम बौद्ध भिक्षुओं और ईसाई पादरियों को सेवा के प्रति जितना तत्पर पाते हैं, उतना जैन भिक्षु संघ को नहीं। जैन भिक्षु अपने सहवर्गी के अतिरिक्त अन्य की सेवा नहीं कर सकता । जबकि बौद्ध भिक्षु प्राचीन काल से ही पीड़ित एवं दुःखित वर्ग की सेवा करता रहा है।
हिन्दू परम्परा में सेवा, अतिथिसत्कार, देवऋण, पितृऋण, गुरुऋण तथा लोकसंग्रह की अवधारणाएँ अहिंसा के विधायक पक्ष को स्पष्ट कर देती हैं । तुलनात्मक दृष्टि से हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए कि सैद्धान्तिक रूप में जैन मुनिवर्ग की अहिंसा निषेधात्मक अधिक रही। किन्तु जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न है-जैन गृहस्थ समाज एवं लोकसेवा के कार्यों से किसी भी युग में पीछे नहीं रहा है । आज भी भारत में जैन समाज द्वारा जितनी लोक कल्याणकारी प्रवृतियाँ चल
१. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंध, अ० १५।१७९ मूल एवं टीका.
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