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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
हैं, तथापि प्राणियों की ऐन्द्रिक क्षमता एवं आध्यात्मिक विकास के आधार पर हिंसादोष की तीव्रता आधारित होती है। एक त्रस जीव की हिंसा करता हुआ मनुष्य तत्सम्बन्धित अनेक जीवों की हिंसा करता है । एक अहिंसक ऋषि की हत्या करने वाला एक प्रकार से अनन्त जीवों की हिंसा करने वाला होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस जीवों की और त्रस जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचन्द्रियों में भी मनुष्य को और मनुष्यों में भी ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट है। इतना ही नहीं, त्रस जीव की हिंसा करनेवाले को अनेक जीवों की हिंसा का और ऋषि की हिंसा करनेवाले को अनन्त जीवों की हिंसा का करनेवाला बता कर शास्त्रकार ने यह स्पष्ट निर्देश किया है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में संख्या का प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है प्राणी की ऐन्द्रि क एवं आध्यात्मिक विकास क्षमता ।
जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी एक को चुनना अनिवार्य हो तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। किन्तु कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी यह निर्णय देश, काल, परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आँकना होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है(१) प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और (२) उसकी सामाजिक उपयोगिता। सामान्यतया मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान है और मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान हो सकता है । संभवतः हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चींटियों के प्रति तो संवेदनशील बन सके किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को मोड़ना है और मानवता के प्रति अहिंसा को सकारात्मक बनाना है। यह आवश्यक है कि हम अपरिहार्य हिंसा को हिंसा के रूप में समझते रहें, अन्यथा हमारा करुणा का स्रोत सूख जावेगा। विवशता में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और हिंसित के प्रति करुणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी जैसे-कसाई बालक में । हिंसा-अहिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, हृदय में दया और करुणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा को हृदय-शून्य नहीं बनाना है। क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा
१. भगवतीसूत्र, ७।८।१०२. ३. वही, ९:३४।१०७.
२. वही, ९।३४।१०६.
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