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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
घात ( हिंसा) को हिंसा के रूप में नहीं मानती हैं। यद्यपि इन अपवादात्मक स्थितियों में भी साधक का राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठ कर अप्रमत्त चेता होना आवश्यक है। इस प्रकार तीनों परम्पराएँ इस सम्बन्ध में भी एकमत हो जाती हैं कि हिंसा-अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक है; बाह्य रूप में हिंसा के होने पर भी राग-द्वेष वृत्तियों से ऊपर उठा हुआ अप्रमत्त मनुष्य अहिंसक है, जबकि बाह्य रूप में हिंसा नहीं होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक है। तीनों परम्पराएँ इस सम्बन्ध में भी एकमत हैं कि अपने-अपने शास्त्रों की आज्ञानुसार आचरण करने पर होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है।'
अतः अहिंसा सम्बन्धी सैद्धान्तिक मान्यताओं में सभी आचारदर्शन एकदूसरे के पर्याप्त निकट आ जाते हैं, लेकिन इन आधारों पर यह मान लेना भ्रांति है कि व्यावहारिक जीवन में अहिंसा के प्रत्यय का विकास सभी आचारदर्शनों में समान रूप से हुआ हैं। ___अहिंसा के सिद्धान्त की सार्वभौम स्वीकृति के बावजूद भी अहिंसा के अर्थ को लेकर सब धर्मों में एकरूपता नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच खींची गई भेद-रेखा सभी में अलग-अलग है । कहीं पशुवध को ही नहीं, नरबलि को भी हिंसा की कोटि में नहीं माना गया है तो कहीं वानस्पतिक हिंसा अर्थात् पेड़-पौधे को पीड़ा देना भी हिंसा माना जाता है । चाहे अहिंसा की अवधारणा उन सबमें समानरूप से उपस्थित हो किन्तु अहिंसक चेतना का विकास उन सबमें समानरूप से नहीं हुआ है । क्या मूसा के Thou shalt not kill के आदेश का वही अर्थ है जो महावीर की 'सम्वेसत्ता न हंतव्वा' की शिक्षा का है ? यद्यपि हमें यह ध्यान रखना होगा कि अहिंसा के अर्थविकास की यह यात्रा किसी कालक्रम में न होकर मानव जाति की सामाजिक चेतना तथा मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास के परिणामस्वरूप हुई है । जो व्यक्ति या समाज जीवन के प्रति जितना अधिक संवेदनशील बना उसने अहिंसा के प्रत्यय को उतना ही अधिक व्यापक अर्थ प्रदान किया। अहिंसा के अर्थ का यह विस्तार भी तीनों रूपों में हुआ है-एक ओर अहिंसा के अर्थ को व्यापकता दी गई, तो दूसरी ओर अहिंसा का विचार अधिक गहन होता चला गया है। एक ओर स्वजाति और स्वधर्मी मनुष्य की हत्या के निषेध से प्रारंभ होकर षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध तक इसने अर्थविस्तार पाया है तो दूसरी ओर प्राणवियोजन के बाह्य रूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद ) के आन्तरिक रूप तक, इसने गहराईयों में प्रवेश किया है । पुनः अहिंसा ने 'हिंसा मत करो' के निषेधात्मक अर्थ से लेकर दया, करुणा, दान, सेवा और सहयोग के विधायक अर्थ तक भी अपनी यात्रा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रि-आयामी ( थ्री डाईमेन्सनल ) है । अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा को लेकर कोई चर्चा करना चाहते हैं तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा। १. दर्शन और चिन्तन, पृ० ४१०-४११.
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