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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
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जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्ति को लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस अवधारणा ने कहाँ कितना अर्थ पाया है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थविस्तार __ मूसा ने धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किये थे उनमें एक है 'तुम हत्या मत करो' किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देता हुआ देखते हैं । इस्लाम ने चाहे अल्लाह को 'रहमानुर्रहीम'-करुणाशील कह कर सम्बोधित किया हो, और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करुणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा। इतर मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका है। पुनः यहूदी और इस्लाम दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप से आज तक स्वीकृत किया जाता है । इस प्रकार इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों से अधिक अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवेदनशीलता का अधिक विकास हमें ईसाई धर्म में दिखाई देता है। ईसा शत्रु के प्रति भी करुणाशील होने की बात कहते हैं । वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने और पराये, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं । इस प्रकार उनकी करुणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है । यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाइयों ने धर्म के नाम पर खून की होली खेली हो और ईश्वर-पुत्र के आदेशों की अवहेलना की हो किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं । धर्म के नाम पर पशुबलि की स्वीकृति भी ईसाई धर्म में नहीं देखी जाती है। इस प्रकार उसमें अहिंसा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को एक विधायक दिशा भी प्रदान की है। फिर भी सामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निषेध की बात वहाँ नहीं उठाई गई है । अतः उसकी अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है, वह भी समस्त प्राणी जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका। भारतीय चिन्तन में अहिंसा का अर्थ-विस्तार
चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, ६.७५.१४) के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समोक्षे' (यजुर्वेद, ३६.१८) के रूप में सर्वप्राणियों के प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो किंतु वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है । मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं । यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं
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