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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २१३ पति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। यहो नहीं, निशीथचूणि में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया है कि संव को सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। ऐसे प्रसंगों में पशु-हिंसा तो क्या मनुष्य को हिंसा भी उचित मान ली गयी है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों में आस्था रखता है यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। निशीथचूणि में अहिंसा के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा को दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें ? क्या उनका कोई दायित्व नहीं है ? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जिनमें अहिंसक संस्कृति की रक्षा के लिए हिंसक वृत्ति अपनानी पड़े । यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, क्या उस अहिंसक समाज को अपने अस्तित्व के लिए कोई संघर्ष नहीं करना चाहिए ? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं है । जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा को साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा कही जानेवाली अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सुरक्षात्मक हिंसा समाजजीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में इसे मान्य भी करना ही होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जावन में बनी ही रहेगी। मानव समाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में सोचा तो जा सकता है किन्तु उसके लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीको विकास को आवश्यकता होगी । यद्यपि हमें यह समझ भी लेना होगा कि जब तक मनुष्य को संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया जावेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा मनुष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा। अहिंसा के सिद्धान्त पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार-अहिंसा के आदर्श को जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ समान रूप से स्वीकार करती है । लेकिन जहाँ तक अहिंसा के पूर्ण आदर्श को व्यावहारिक जीवन में उतारने की बात है, तीनों ही परम्पराएँ कुछ अपवादों को स्वीकार कर जीवन के धारण और रक्षण के निमित्त हो जाने वाले जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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