SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है । इतना ही नहीं, वरन् जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त मनुष्य उनका भी हिंसक है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है' इस प्रकार आचार्य का fron यही है कि केवल दृश्यमान् पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता' । आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं कि बाहर में प्राणी मरे या जिए असंयताचारी (प्रमत्त) को हिंसा का दोष निश्चित रूप से लगता है । परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवान या संयताचारी है, उसको बाहर से होने वाली हिंसा के कारण कर्म बन्धन नहीं होता । आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से उपर उठकर नियमपूर्वक आचरण करते हुए भी यदि प्राणघात हो जाये तो वह हिंसा नहीं है ४ । निशीथचूर्णि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है" । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है । इस दृष्टिकोण के पीछे प्रमुख विचार यह है कि एक ओर व्यावहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना के लिए जीवन को बनाये रखने का प्रयास, यह दो ऐसी स्थितियाँ हैं जिनको साथ-साथ चलाना सम्भव नहीं होता है । अतः जैन- विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से हैं । * इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है । गीता कहती है, जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता है और वह ( अपने इस कर्म के कारण ) बन्धन में नहीं पड़ता । धम्मपद में भी कहा है कि ( नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को मारकर भी, निष्पाप होकर जाता है ( क्योंकि वह पाप-पुण्य ऊपर उठ जाता है) । यहाँ गीता और धम्मपद में प्रयुक्त 'मार कर' शब्द पर आपत्ति हो सकती है। जैनपरम्परा में सामान्यतया इस प्रकार के प्रयोग नहीं हैं, फिर भी जैनागमों में ऐसे अपवाद स्थानों का विवेचन उपलब्ध है जबकि हिंसा अनिवार्य हो जाती है । ऐसे अवसरों पर अगर की जाने वाली हिंसा से डर कर कोई उसका आचरण नहीं करता ( वह हिंसा १. ओघनियुक्ति ७५२-५३ ३. प्रवचनसार, ३।१७ ५. निशीथचूर्णि ९२ ७. गीता, १८-१७ Jain Education International २. वही, ७५८ ४. पुरुषार्थसिद्धियुक्ति, ४५ ६. देखिए - दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ४१४ ८. धम्मपद, २९४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy