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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रिय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह कि क्या ऐसी स्थिति में कोई पूर्ण अहिंसक हो सकता है ? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया है । जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं । ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो, फिर कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही जाने जाते हैं-मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा सकता है ।
प्राचीन युग से ही जैन-विचारकों की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर है। आचार्य भद्रबाहु इस सन्दर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-त्रिकालदर्शी जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दष्टि से नहीं है । जैन-विचारधारा के अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं।
हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है जितना वह साधक की मनोदशा पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक है । हिंसा में संकल्प की प्रमुखता है। भगवती सूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं-हे भगवन, किसी श्रमणोपासक ने किसी त्रस प्राणी का वध न करने की प्रतिज्ञा ली हो, लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो, यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाय तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई ? महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित नहीं-उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं हुई। इस प्रकार संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक को मानसिक स्थिति ही हिंसा-अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है । परवर्ती जैन साहित्य में यही धारणा पुष्ट होती रही है । आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि सावधानी पूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी-कभी कोट, पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्म बंध भी नहीं बताया गया है, क्योंकि यह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है । जो विवेक सम्पन्न अप्रमत्त साधक आन्तरिक विशुद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। लेकिन जो व्यक्ति प्रमत्त है
१. महाभारत, शान्ति पर्व १५।२५-२६ ३. भगवतीसूत्र, ७।१।६-७ ५. ओघनियुक्ति, ७५९
२. ओघनियुक्ति, ७४७ ४. ओघनियुक्ति ७४८-४९
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