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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर्ता को उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है । हिंसा की उन स्थितियों में, जिनमें हिंसा को जाती हो या हिंसा करनी पड़ती हो, हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत दबाव के स्वतंत्र रूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट कोटि की है क्योंकि आक्रमणात्मक है।
. हिंसा के विभिन्न रूप-हिंसक कर्म की उपयुक्त तीन अवस्थाओं में यदि हिंसा हो जाने की तीसरी अवस्था को छोड़ दिया जाये तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं- १. हिंसा की गयी हो और २. हिंसा करनी पड़ी हो। वे दशाएँ जिनमें हिंसा करनी पड़ती है, दो प्रकार की हैं-१. रक्षणात्मक और २. आजीविकात्मक, इसमें दो बातें सम्मिलित हैं-जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग ।
जैन दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार रूप माने गये हैं
१. संकल्पजा (संकल्पी हिंसा)-संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना। यह आक्रमणात्मक हिंसा है।
२. विरोधजा. -स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों (अधिकारों) के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना । यह सुरक्षात्मक हिंसा है ।
३. उद्योगजा-आजीविका उपार्जन अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होनेवाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है।
४ आरम्भजा-जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा-जैसे भोजन का पकाना । यह निर्वाहात्मक हिंसा है। हिंसा के कारण
__ जैन आचार्यों ने हिंसा के चार कारण माने हैं । १. राग, २. द्वष, ३. कषाय अर्थात् क्रोध, अहंकार, कपट एवं लोभवृत्ति और ४. प्रमाद । हिसा के साधन ___ जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं-मन, वचन और शरीर । सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों द्वारा होती या की जाती है । हिसा और अहिंसा मनोदशा पर निर्भर
जैन विचारधारा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पतिजगत् ही जीवनयुक्त है, वरन् समग्र लोक सूक्ष्म जीवों से व्याप्त है। अतः प्रश्न होता है
१. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० १२३१
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