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________________ सामाजिक नेतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २०७ नहीं करता) तो उलटे दोष का भागी बनता है यदि गीता में वर्णित युद्ध के अवसर को एक अपवादात्मक स्थिति के रूप में देखें तो सम्भवतः जैन-विचारणा गीता से अधिक दूर नहीं रह जाती है। दोनों ही ऐसी स्थिति में व्यक्ति के चित्त-साम्य (कृतयोगित्व) और परिणत शास्त्रज्ञान (गीतार्थ) पर बल देती है । अहिंसा के बाह्य पक्ष की अवहेलना उचित नहीं-हिंसा-अहिंसा के विचार में जिस भावात्मक भान्तरिक पक्ष पर जैन-आचार्य इतना अधिक बल देते रहे हैं, उसका - हत्त्व निर्विवाद रूप से सभी को स्वीकार्य है। यही नहीं, इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, गीता और बौद्ध-दर्शन में विचार साम्य है, जिस पर हम विचार कर चुके हैं। यह निश्चित है कि हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में भावात्मक या आन्तरिक पहलू ही मूल केन्द्र है, लेकिन दूसरे बाह्य पक्ष की अवहेलना भी कथमपि सम्भव नहीं है । यद्यपि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष का ही सर्वाधिक मूल्य है; लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन का प्रश्न है, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को भी झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि व्यावहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है, वह तो आचरण का बाह्य पक्ष ही है। ___ गीता और बौद्ध आचार-दर्शन की अपेक्षा भी जैन-दर्शन ने इस बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक समुचित विचार किया है। जैन-परम्परा यह मानती है कि किन्हीं अपवाद की अवस्थाओं को छोड़ कर सामान्यतया जो विचार में है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वत दृष्टि उसे स्वीकार्य नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्तरंग में अहिंसक वृत्ति के होते हुए बाह्य हिंसक आचरण कर पाना, यह एक प्रकार की भ्रान्ति है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि यदि हृदय पापमुक्त हो तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है, यह एक मिथ्या धारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती है, तो जैन दर्शन का उससे स्पष्ट विरोध है। जैनधर्म कहता है कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा करना सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं ।२ वस्तुतः हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन-दृष्टि का सार यह है कि हिंसा चाहे वह बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचार का नियम नहीं हो सकती। दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना भी मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य है । हिंसा का हेतु मानसिक प्रवृत्तियाँ, कषायें हैं, १. देखिए-दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ४१६ २. सूत्रकृतांग, २।६।३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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