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________________ १८४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवशनों का तुलनात्मक अध्ययन आश्रम-धर्म __'आश्रम' शब्द श्रम से बना है। श्रम का अर्थ है प्रयास या प्रयत्न । जीवन के विभिन्न साध्यों की उपलब्धि के लिए प्रत्येक आश्रम में एक विशेष प्रयत्न होता है । जिस प्रकार जीवन के चार साध्य या मूल्य-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माने गये हैं, उसी प्रकार जीवन के इन चार साध्यों की उपलब्धि के लिए इन चार आश्रमों का विधान है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्यार्जन के लिए है और इस रूप में वह चारों ही आश्रमों की एक पूर्व तैयारी रूप है। गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किया जाता है जबकि धर्म पुरुषार्थ की साधना वानप्रस्थाश्रम में और मोक्ष पुरुषार्थ की साधना संन्यास आश्रम में की जाती है। यह स्मरणीय है कि वर्ण का सिद्धान्त सामाजिक जीवन के लिए है, किन्तु आश्रम का सिद्धान्त वैयक्तिक है । आश्रम सिद्धान्त यह बताता है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक लक्ष्य क्या है, उसे अपने को किस प्रकार ले चलना है तथा अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे कैसी तैयारी करनी है । डा० काणे के अनुसार आश्रम-सिद्धान्त एक उत्कृष्ट धारणा थी। भले ही इसे भलीभाँति क्रियान्वित नहीं किया जा सका, परन्तु इसके लक्ष्य या उद्देश्य बड़े ही महान् और विशिष्ट थे।' आश्रम-संस्था का विकास कब हुआ, यह कहना कठिन है। लगभग सभी भारतीय आचार-दर्शनों के ग्रन्थों में आश्रम-सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् के काल तक हमें तीन आश्रमों का विवेचन उपलब्ध होता है । उस युग तक संन्यास आश्रम की विशेष चर्चा सुनाई देती है। संन्यास और वानप्रस्थ सामान्यतया एक ही माने गये थे, लेकिन परवर्ती साहित्य में चारों ही आश्रमों का विधान और उसके विधि-निषेध के नियम विस्तार से उपलब्ध हैं। वैदिक परम्परा में चारों आश्रमों के सम्बन्ध में तीन विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है:-१. समुच्चय, २ विकल्प एवं ३. बाध। मनु ने इन चारों आश्रमों में समुच्चय का सिद्धान्त स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को क्रमशः चारों ही आश्रमों का अनुसरण करना चाहिए । दूसरे मत के अनुसार आश्रमों की इस अवस्था में विकल्प हो सकता है, अर्थात् मनुष्य इच्छानुसार इनमें से किसी एक आश्रम को ग्रहण कर सकता है। बाध के सिद्धान्त के अनुसार गृहस्थाश्रम ही एक मात्र वास्तविक आश्रम है और अन्य आश्रम अपेक्षाकृत उससे कम मूल्य वाले हैं । आश्रम-व्यवस्था के सन्दर्भ में विकल्प सिद्धान्त यह मानता है कि ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास में से किसी भी आश्रम को ग्रहण किया जा सकता है। जाबालोपनिषद् एवं आचार्य शंकर ने इस मत का समर्थन किया है । उनके अनुसार जब भी वैराग्य उत्पन्न १. विस्तृत विवेचन के लिए देखिए-धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ० २६४ २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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