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________________ वर्णाश्रम व्यवस्था १८३ गीता के अनुसार यदि एक करता है तो वह अनैष्ठिक । गीता के आचार-दर्शन की पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर रहा है। शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता से और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है भी यह विशिष्टता है कि वह भी जैन दर्शन के समान साधना पथ का द्वार सभी के लिए खोल देता है । गीता यद्यपि वर्णाश्रम धर्म को स्वीकृत करती है, लेकिन उसका वर्णाश्रम धर्म तो सामाजिक मर्यादा के सन्दर्भ में ही है । आध्यात्मिक विकास का सामाजिक मर्यादाओं के परिपालन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । गीता स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से ऊँचाइयों पर पहुँच सकता है । १ श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि व्यक्ति चाहे अत्यन्त दुराचारी रहा हो अथवा स्त्री, शूद्र या वैश्य हो अथवा ब्राह्मण या राजर्षि हो, यदि वह सम्यक्रूपेण मेरी उपासना करता है तो वह श्रेष्ठ गति को ही प्राप्त करता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गीता के अनुसार आध्यात्मिक विकास का द्वार सभी के लिए समान रूप से खुला हुआ है । जो लोग नैतिक या आध्यात्मिक विकास को आचरण के बाह्य तथ्यों या वैयक्तिक जीवन के पूर्वरूप या व्यक्ति के सामाजिक स्वस्थान से बांधने की कोशिश करते हैं, वे भ्रान्ति में हैं । गीता के आचार- दर्शन के अनुसार सामाजिक स्वस्थान के कर्तव्यों के परिपालन और नैतिक या आध्यात्मिक विकास के कर्तव्यों में कोई संघर्ष नहीं क्योंकि दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार गीता के अनुसार वर्ण व्यवस्था का सम्बन्ध सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से है । लेकिन विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बन्ध तो उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास से है । इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण रखते हैं । उनके दृष्टिकोण को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है १. वर्ण का आधार जन्म नहीं वरन् गुण (स्वभाव) और कर्म है । २. वर्ण अपरिवर्तनीय नहीं है । व्यक्ति अपने स्वभाव, आचरण और कर्म में परिवर्तन कर वर्ण परिवर्तित कर सकता है । ३. वर्ण का सम्बन्ध सामाजिक कर्तव्यों से है, लेकिन कोई भी सामाजिक कर्तव्य या व्यवसाय अपने आपमें न श्रेष्ठ है, न हीन है । व्यक्ति की श्रेष्ठता और हीनता उसके सामाजिक कर्तव्य पर नहीं, वरन् उसकी नैतिक निष्ठा पर निर्भर है । ४. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का अधिकार सभी वर्ण के लोगों को प्राप्त है । १. गीता, ९।३०, ३२, ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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