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वर्णाश्रम-व्यवस्था
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हो जाय तभी प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना चाहिए१ बाध सिद्धान्त को मानने वाले गौतम एवं बौधायन हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार गृहस्थाश्रम ही सर्वोत्कृष्ट है। इस मत के कुछ विचारकों ने वानप्रस्थ एवं संन्यास को कलियुग में वयं मान लिया है ।२
वैदिक परम्परा में आश्रम-सिद्धान्त जीवन को चार भागों में विभाजित कर उनमें से प्रत्येक भाग में एक-एक आश्रम के अनुसार जीवन व्यतीत करने का निर्देश देता है । प्रथम भाग में ब्रह्मचर्य, दूसरे में गृहस्थ, तीसरे में वानप्रस्थ और चौथे में संन्यास-आश्रम ग्रहण करना चाहिए।
जैन-परम्परा और आश्रम-सिद्धान्त-श्रमण-परम्पराओं में आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होता । यदि हम वैदिक-विचारधारा की दृष्टि से तुलनात्मक विचार करें तो यह पाते हैं कि श्रमण-परम्पराएँ आश्रम-सिद्धान्त के सन्दर्भ में विकल्प के नियम को ही महत्त्व देती है। उनके अनुसार संन्यास-आश्रम ही सर्वोच्च है और व्यक्ति को जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाये तभी इसे ग्रहण कर लेना चाहिये। उनका मत जाबालोपनिषद् और शंकर के अधिक निकट है। श्रमण-परम्पराओं में ब्रह्मचर्याश्रम का भी विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं होता। चूंकि श्रमण-परम्पराओं ने आध्यात्मिक जीवन पर ही अधिक जोर दिया अतः उनमें ब्रह्मचर्याश्रम के लौकिक शिक्षाकाल और गृहस्थाश्रम के लौकिक विधानों के सन्दर्भ में कोई विशेष दिशा-निर्देश उपलब्ध नहीं होता। लौकिक जीवन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए सामान्यतया व्यावसायिक ब्राह्मण शिक्षकों के पास ही विद्यार्थी जाते थे, क्योंकि श्रमण-वर्ग सामान्यतया आध्यात्मिक शिक्षा ही प्रदान करता था। गृहस्थाश्रम के सन्दर्भ में आध्यात्मिक विकास एवं सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से यद्यपि श्रमण-परम्पराओं में नियम उपलब्ध हैं, लेकिन विवाह एवं पारिवारिक जीवन के सन्दर्भ में सामान्यतया नियमों का अभाव ही है। ___ यद्यपि परवर्ती जैनाचार्यों ने हिन्दू धर्म की इस आश्रम व्यवस्था को धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया और उसे जैन-परम्परा के अनुरूप बनाने का प्रयास किया । आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में यह स्वीकार किया है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु ये चारों आश्रम जैनधर्म के अनुसार उत्तरोत्तर शुद्धि के परिचायक हैं । जैन परम्परा में ये चारों आश्रम स्वीकृत रहे हैं । ब्रह्मचर्याश्रम को लौकिक जीवन की शिक्षाकाल के रूप में तथा गृहस्थाश्रम को गृहस्थ-धर्म के रूप में एवं वानप्रस्थ आश्रम को ब्रह्मचर्य प्रतिमा से लेकर उद्दिष्टविरत या श्रमणभूत प्रतिमा को साधना के रूप में अथवा सामायिक-चारित्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। संन्यास-आश्रम तो श्रमण जीवन के रूप में स्वीकृत है ही। इस प्रकार चारों ही आश्रम जैन-परम्परा में भी
२. देखिए-धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० २६७
१. जाबालोपनिषद् ३.१ ३. आदिपुराण ३९।१५२
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