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________________ वर्णाश्रम व्यवस्था १८१ पर नहीं, वरन् कर्म पर ही आधारित है । गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही किया गया है ।" डॉ० राधाकृष्णन् लिखते हैं, यहाँ जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं । हम किस वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है । स्वभाव और व्यवसाय द्वारा निर्धारित जाति नियत होती है । २ युधिष्ठिर कहते हैं, "तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) हो जाति का निर्धारक तत्त्व है ।" वनपर्व में कहा गया है, "ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से, और न वेद के अव्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है ।" बौद्धागम सुत्तनिपात के समान महर्षि अत्रि भी कहते हैं, जो ब्राह्मण धनुष-बाण और अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध में विजय पाता है वह क्षत्रिय कहलाता है । जो ब्राह्मण खेती बाड़ी और गोपालन करता है, जिसका व्यवसाय वाणिज्य है वह वैश्य कहलाता है । जो ब्राह्मण लाख, लवण, केसर, दूध, मक्खन, शहद और मांस बेचता है वह शूद्र कहलाता है । जो ब्राह्मण चोर, तस्कर, नट का कर्म करने वाला, मांस काटने वाला और मांस-मत्स्य भोगी है वह निषाद कहलाता है । क्रियाहीन, मूर्ख सर्व धर्म विवर्जित, सब प्राणियों के प्रति निर्दय ब्राह्मण चाण्डाल कहलाता है । " डाँ० भिखन लाल आत्रेय ने भी गुण-कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया है - ( अ ) प्राचीन वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, लचीली थी । वर्ण- परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था, क्योंकि आचरण के कारण वर्ण परिवर्तित हो जाता था । उपनिषदों में वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है । सत्यकाम जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया था । ( ब ) मनस्मृति में भी वर्ण- परिवर्तन का विधान है; लिखा है कि "सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण ब्राह्मण शूद्र हो जाता है । यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी है ।"" नैतिक दृष्टि से गोता के आचार-दर्शन के अनुसार भो कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि नैतिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है । व्यक्ति स्वाभावानुकूल किसी भी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए नैतिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है ।" वर्ण-व्यवस्था के द्वारा निहित कर्म नैतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे नहीं होते, " सहज कर्म सदोष होने पर त्याज्य नहीं होते । ११ २. १. गीता ४।१३, १८।४१ ३. उद्धृत - भगवद्गीता (रा० ), पृ० १६३ ४. ५. अत्रिस्मृति, १।३७४-३८० ६. भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास पृ० ६२५ ८. मनुस्मृति, १०।६५ १०. वही, १८०४७ Jain Education International भगवद्गीता (रा० ), पृ० १६३ महाभारत वनपर्व ३१३ | १०८ ९. छान्दोग्य० ४।४ ९. गीता, १८।४५-४६ ११. वहो, १८४८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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