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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वर्ण-परिवर्तन सम्भव है तो क्या मानते हो आश्वलायन ! तुमने सुना है कि यवन, कम्बोज और दूसरे भी सीमान्त देशों में दो ही वर्ण होते हैं आर्य और दास (गुलाम) आर्य भी दास हो सकता है और दास भी आर्य हो सकता है।'
हाँ, मैंने सुना है कि यवन और कम्बोज में ऐसा होता है । इस आधार पर बुद्ध वर्णपरिवर्तन को सम्भव मानते हैं ।
सभी जाति समान है तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्षत्रिय प्राणिहिंसक, चोर, दुराचारी, झूठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेषी, झूठी धारणा वाला हो, तो शरीर छोड़ मरने के बाद नरक में उत्पन्न होगा या नहीं ? ब्राह्मण, वेश्य, शुद्र, प्राणिहिंसक हो, तो नरक में उत्पन्न होंगे या नहीं ? 'हे गौतम क्षत्रिय भी प्राणि-हिंसक हो तो नरक में उत्पन्न होगा और ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र भी।'
"तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्राह्मण ही प्राणि-हिंसा से विरत हो, तो अच्छी गति प्राप्त कर स्वर्ग लोग में उत्पन्न हो सकता है और क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण नहीं।"
"नहीं, हे गौतम ! क्षत्रिय भी यदि प्राणिहिसा से विरत हो, तो अच्छी गति प्राप्त कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हो सकता है और ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र वर्ण भी।"
"तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्राह्मण ही वैर रहित, द्वेष रहित मैत्री-चित्त की भावना कर सकता है, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र नहीं।"
इस प्रकार बुद्ध स्वयं आश्वलायन के प्रति उत्तरों से ही सभी जातियों की समानता का प्रतिपादन करते हैं और यह बताते हैं कि सभी नैतिक विकास कर सकते हैं ।
आचरण ही श्रेष्ठ है तो क्या मानते हो आश्वलायन ! यदि यहाँ दो माणवक जुड़वे भाई हों, एक अध्ययन करने वाला, पनीत, किन्तु दुःशील, पापी हो; दूसरा अध्ययन न करने वाला, अनुपनीत, किन्तु शीलवान्, पुण्यात्मा हो । इनमें ब्राह्मण श्राद्ध, यज्ञ या पहुनाई में पहले किसको भोजन करायेंगे।"
"हे गौतम ! वह माणवक जो अध्ययन न करने वाला, अनुपनीत, किन्तु शीलवान्, कल्याणधर्मा है, उसी को ब्राह्मण पहले भोजन करायेंगे। दुःशील, पापधर्मा को दान देने से क्या महाफल होगा?"
"आश्वलायन ! पहले तू जाति पर पहुँचा, जाति से मंत्रों पर पहुँचा, मंत्रों से अब तू चातुर्वर्णी-शुद्धि पर आ गया, जिसका मैं उपदेश करता हैं ।२
गीता तथा वर्ण-व्यवस्था-वास्तव में हिन्दू आचार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म
१. मज्झिमनिकाय २।५।३-उद्धृत जातिभेद और बुद्ध, पृ० ८ २. मज्झिमनिकाय, २।५।३
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