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________________ स्वहित बनाम लोकहित १६९ स्पष्ट कर देते हैं कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए । वे लिखते हैं, "जिस प्रकार अपने आपको भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती है उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व या विस्मय नहीं होता है' । ' ( क्योंकि परार्थ द्वारा हम अपने ही समाजरूपी शरीर की या उसके अवयवों की सन्तुष्टि करते हैं ) इसलिए एकमात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके, न गर्व करना और न विस्मय और न विपाकफल की इच्छा ही ।" इतना ही नहीं, बौद्ध दर्शन भी आत्मार्थ और परार्थ में कोई भेद नहीं देखता । वह आत्मार्थ को परार्थ के लिए समर्पित करने के लिए भी तत्पर है । लेकिन उसकी एक सीमा है जिसे वह भी उसी रूपमें स्वीकार करता है, जिस रूप में जैन- विचारकों ने उसे प्रस्तुत किया है । वह कहता है कि लोकमंगल के लिए सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है, यहाँ तक कि अपने समस्त संचित पुण्य और निर्वाण का सुख भी । लेकिन वह उसके लिए अपनी नैतिकता को, अपने सदाचार को समर्पित करने के लिए तत्पर नहीं है । नैतिकता और सदाचरण की कीमत पर किया गया लोक-कल्याण उसे स्वीकार नहीं है । एक बौद्ध साधक विगलित शरीरवाली वेश्या की सेवा-शुश्रुषा तो कर सकता है, लेकिन उसकी कामवासना की पूर्ति नहीं कर सकता । किसी भूख से व्याकुल व्यक्ति को अपना भोजन भले ही दे दे, लेकिन उसके लिए चौर्य कर्ज का आचरण नहीं कर सकता। बौद्ध दर्शन में लोकहित का वही रूप आचरणीय है जो नैतिक जीवन के सीमाक्षेत्र में हो । लोकहित नैतिक जीवन से ऊपर नहीं हो सकता । नैतिकता के समस्त फलों को लोकहित के लिए समर्पित किया जा सकता है, लेकिन स्वयं नैतिकता को नहीं । बौद्ध विचारणा में लोकहित के पवित्र साध्य के लिए भ्रष्ट या अनैतिक साधन कथमपि स्वीकार नहीं हैं । लोकहित वहीं तक आचरणीय है जहाँ तक उसका नैतिक जीवन से अविरोध हो । यदि कोई लोकहित ऐसा हो जो व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के बलिदान पर ही सम्भव हो, तो ऐसी दशा में वह बहुजन हित आचरणीय नहीं है, वरन् स्वयं के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि हो आचरणीय है । धम्मपद में कहा है, व्यक्ति अपने अशुभाचरण से ही अशुद्ध होता है और अशुभ आचरण का सेवन नहीं करने पर ही शुद्ध होता है । शुद्धि और अशुद्धि प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न है । दूसरा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को शुद्ध नहीं कर सकता । इसलिए दूसरे व्यक्तियों के बहुत हित के लिए भी अपनी नैतिक शुद्धि रूपी हित की हानि नहीं करे और अपने सच्चे हित और कल्याण को जानकर उसकी प्राप्ति में लगे | 3 संक्षप में बौद्ध आचार - दर्शन में ऐसा लोकहित ही स्वीकार्य है, जिसका व्यक्ति के २ . वही, ८।१०९ १. बोधिचर्यावतार, ८।११६ ३. धम्मपद, १६५-१६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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