________________
१६८
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, 'कितनी उदात्त भावना है । विश्व चेतना के साथ अपने को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है । परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है' ।' आचार्य शान्तिदेव भी केवल परोपकार या लोककल्याण का सन्देश नहीं देते, वरन् उस लोक-कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्काम, भाव पर भी बल देते हैं । निष्काम भाव से लोककल्याण कैसे किया जाये, इसके लिए शान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किये हैं वे उनके मौलिक चिन्तन का परिणाम है । गीता के अनुसार व्यक्ति ईश्वरीय प्रेरणा को मानकर निष्काम भाव से कर्म करता रहे अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी पर ब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में आत्मभाव जागृत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे। लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में तो यह सम्भव नहीं था । यह तो आचार्य की बौद्धिक प्रतिभा ही है, जिसने मनोवैज्ञानिक आधारों पर निष्कामभाव से लोकहित की अवधारणा को सम्भव बनाया। समाज के सावयवता के जिस सिद्धान्त के आधार पर ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्त्य विचारक लोकहित और स्वहित में समन्वय साधते हैं और उन विचारों की मौलिकता का दावा करते हैं, वे विचार आचार्य शान्तिदेव के ग्रंथों में बड़े स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं और उनके आधार पर उन्होंने निःस्वार्थ कर्म-योग की अवधारणा को भी सफल बनाया है । वे कहते हैं कि, जिस प्रकार निरात्मक (अपनेपन के भाव रहित ) निज शरीर में अभ्यासवश अपनेपन का बोध होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्यास से क्या अपनापन उत्पन्न न होगा ?२ अर्थात् दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्यास से ममत्वभाव अवश्य ही उत्पन्न होगा, क्योंकि जैसे हाथ आदि अंग शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सभी देहधारी जगत् के अवयव होने के कारण प्रिय क्यों नहीं होंगे, अर्थात् वे भी उसी जगत् के, जिसका मैं अवयव हूँ, अवयव होने के कारण प्रिय होंगे, उनमें भी आत्मभाव होगा और यदि सब में प्रियता एवं आत्मभाव उत्पन्न हो गया तो फिर दूसरों के दुःख दूर किये बिना नहीं रहा जा सकेगा, क्योंकि जिसका जो दुःख हो वह उससे अपने को बचाने का प्रयत्न तो करता है । यदि दूसरे प्राणियों को दुःख होता है, तो हमको उससे क्या ? ऐसा मानो तो हाथ को पैर का दुःख नहीं होता, फिर क्यों हाथ से पैर का कंटक निकालकर दुःख से उसकी रक्षा करते हो ?४ दूर किये बिना नहीं रह सकता, वैसे ही समाज का कोई भी प्राणी का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता । इस प्रकार आचार्य समाज को सावयवता को सिद्ध कर उसके आधार पर लोकमंगल का
जैसे हाथ पैर का दुःख प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे
सन्देश देते हुए आगे यह भी
१. बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, ३. वही, ८।११४
Jain Education International
पृ० ६१२
२. बोधिचर्यावतार, ८ ११५
४.
वही, ८९९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org