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________________ स्वहित बनाम लोकहित १६७ बौद्ध धर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना । वहाँ तो साधक लोकमंगल के आदर्श को साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती है । महायानी साधक कहता है— दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है । अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस हैं, उससे हमें क्या लेना देना लंकावतारसूत्र में बोधिसत्व से यहाँ तक कहलवा दिया गया कि मैं तबतक परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं करूँगा जबतक कि विश्व के सभी प्राणी विमुक्ति प्राप्त न कर लें । 2 साधक पर-दुःख - विमुक्ति से मिलनेवाले आनन्द को स्व के निर्वाण के आनन्द से भी महत्त्वपूर्ण मानता है, और उसके लिए अपने निर्वाण सुख को ठुकरा देता है । परदुःख कातरता और सेवा के आदर्श का इससे बड़ा संकल्प और क्या हो सकता है ? बौद्ध दर्शन की लोकहितकारी दृष्टि का रस-परिपाक तो हमें आचार्य शान्तिदेव के ग्रन्थ शिक्षासमुच्चय और बोधिचर्यावतार में मिलता है । लोकमंगल के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं, 'अपने सुख को अलग रख और दूसरों के दुःख (दूर करने) में लग' 13 दूसरों का सेवक बनकर इस शरीर में जो कुछ वस्तु देख उससे दूसरों का हित कर । दूसरे के दुःख से अपने सुख को बिना बदले बुद्धत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । फिर संसार में सुख है ही कहाँ ? यदि एक के दुःख उठाने से बहुत का दुःख चला जाय तो अपने-पराये पर कृपा करके वह दुःख उठाना ही चाहिए । बोधिसत्त्व की लोकसेवा की भावना का चित्र प्रस्तुत करते हुए आचार्य लिखते हैं, "मैं अनाथों का नाथ बनूँगा, यात्रियों का सार्थवाह बनूँगा, पार जाने की इच्छावालों के लिए मैं नाव बनूँगा, मैं उनके लिए सेतु बनूँगा, धरनियाँ बनूँगा । दीपक चाहने वालों के लिए दीपक बनूँगा, जिन्हें शय्या की आवश्यकता है उनके लिए मैं शय्या बनूँगा, जिन्हें दास की आवश्यकता है उनके लिए दास बनूँगा, इस प्रकार मैं जगती के सभी प्राणियों की सेवा करूँगा ।' जिस प्रकार पृथ्वी, अग्नि आदि भौतिक वस्तुएँ सम्पूर्ण आकाश ( विश्वमण्डल) में बसे प्राणियों के सुख का कारण होती हैं, उसी प्रकार में आकाश के नीचे रहनेवाले सभी प्राणियों का उपजीव्य बनकर रहना चाहता हूँ, जब तक कि सभी प्राणी मुक्ति प्राप्त न कर लें ।" साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर समन्वय है ! लोकसेवा, लोककल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंहजी १. बोधिचर्यावतार, ८१०८ ३. बोधिचर्यावतार, ८ १६१ ५. वही, ८।१३१ ७. वही, ३।१७-१८ Jain Education International २. लंकावतारसूत्र, ६६।६ ४. वही, ८।१५९ ६. वही, ८1१०५ ८. वही, ३।२० २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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