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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और लोक-कल्याण ही उनके जीवन का ध्येय बन जाता है।
२. गणधर-सहवर्गीय-हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील साधक गणधर है । समूह-हित या गण-कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है।
३. सामान्य केवली-आत्म-कल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना-मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है वह सामान्य केवली कहलाता है । सामान्य केवली को पारिभाषिक शब्दावली में मुण्ड-केवली भी कहते हैं ।
जैनधर्म में विश्वकल्याण, वर्गकल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गयी हैं, जिनसे विश्व-कल्याण की प्रवृत्ति के कारण ही तीर्थङ्कर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है । जिस प्रकार बौद्ध-विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है उसी प्रकार जैन विचारणा में तीर्थङ्कर और सामान्य केवली के आदर्शों में तरतमता है।
दूसरे जैन-साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से ऊपर है, संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है । आचार्य कालक की कथा इसका उदाहरण है। ___ स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) का निर्देश किया गया है, उनमें संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म का उल्लेख इस बात का सबल प्रमाण है कि जैनदृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोककल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित है ।।
। यद्यपि जैन-दर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है परन्तु उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोककल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे संसार की ही है, हमारी नहीं । सांसारिक उपलब्धियाँ संसार के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक विकास या
३. वही, २९० ।
१. योगबिन्दु, २८५-२८८। ४. निशीथचूणि, गा० २८६० ।
२. वही, २८९ । ५. स्थानांग, १०७६० ।
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