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________________ स्वहित बनाम लोकहित १६३ 3 ४ " वाली और सबका कल्याण ( सर्वोदय) करनेवाली है ।" इससे ऊँची लोकमंगल की कामना क्या हो सकती है ? प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए 12 जैन - साधना लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है । उसी सूत्र में आगे कहा है कि जैनसाधना के पाँचों महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं । अहिंसा की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करनेवाली है । यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के आकाश गमन के समान निर्बाध रूप से हितकारिणी है । प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है ।" तीर्थङ्कर- नमस्कारसूत्र ( नमोत्थुणं) में तीर्थङ्कर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का उपयोग हुआ है, वे भी जैनदृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तोर्थङ्करों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि यह माना जाये कि जैन-साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की बात कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ-संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता । अतः मानना पड़ेगा कि जैन-साधना का आदर्श आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोक-कल्याण भी है । जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही अधिक महत्त्व दिया है । जैन दर्शन के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से समान ही होते हैं, फिर भी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के आधार पर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया गया है । एक सामान्य केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ समान ही होती हैं, फिर भी अपनी लोकहितकारी दृष्टि के कारण हो तीर्थंकर को सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जीवन्मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेने वालों में भी उनके लोकोपकारिता के आधार पर तीन वर्ग होते हैं:१ तीर्थंकर, २ गणधर, ३ सामान्य केवली । १. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना-मार्ग में आता है और आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा १. सर्वोदयदर्शन, आमुख, पृ० ६ पर उद्धृत । २. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २०१२ ३. वही, २।१।२१ ४. वही, २।१।३ ५. वही, २।१।२२ ६. सूत्रकृतांग ( टी०) १।६।४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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